Book Title: Atmamimansa
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Jain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras

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Page 107
________________ ( हट ). कारण है । इसी प्रकार पुद्गल में कर्मरूप में परिणत होने का सामर्थ्य है अतः पुद्गल द्रव्यकर्म का उपादान कारण है । किंतु जब तक जीव में भावकर्म की सत्ता न हो पुद्गल द्रव्य कर्मरूप में परिणत नहीं हो सकता । इसलिए भावकर्म निमित्त कारण है । इसी प्रकार द्रव्यकर्म भी भावकर्म का निमित्त कारण है । अर्थात् द्रव्यकर्म और भावकर्म का कार्यकारणभाव उपादानोपादेय रूप न होकर निमित्तनैमित्तिक रूप है । संसारी आत्मा की प्रवृत्ति अथवा क्रिया को भावकर्म कहते हैं । किंतु प्रश्न यह है कि उसकी कौन सी क्रिया को भावकर्म कहना चाहिए ? क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय आत्मा के आभ्यंतर परिणाम हैं, यही भाव कर्म हैं । अथया राग, द्वेष, मोह रूप आत्मा के आभ्यंतर परिणाम भावकर्म हैं । संसारी आत्मा सदैव शरीर सहित होती है, अतः मन, वचन, काय के अवलंबन के बिना उसकी प्रवृत्ति संभव नहीं । आत्मा के कषायरूप अथवा रागद्वेषमोहरूप आभ्यंतर परिणामों का आविर्भाव मन, वचन, काय की प्रवृत्ति द्वारा होता है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संसारी आत्मा की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति जिसे योग भी कहते हैं, रागद्वेषमोह अथवा कषाय के रंग से रंजित होती है । वस्तुतः प्रवृत्ति एक ही है; परन्तु जैसे कपड़े और उस के रंग को भिन्न भिन्न भी कहते हैं, वैसे ही आत्मा की इस प्रवृत्ति के भी दो नाम हैं :- योग और कषाय । रंग से हीन कोरा कपड़ा एकरूप ही होता है, इसी प्रकार कषाय के रंग से विहीन मन, वचन, काय की प्रवृत्ति एक रूप होती है। कपड़े का रंग कभी हलका और कभी गहरा होता है । इसी तरह योग व्यापार के साथ कषाय के रंग की उपस्थिति में भावकर्म कभी तीव्र होता है कभी मन्द । रंग रहित वस्त्र छोटा या बड़ा हो सकता है, कषाय के रंग से हीन योगव्यापार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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