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( ६५ ) कर्म को एकमात्र कारण नहीं मानते, परन्तु गौणमुख्य भाव की अपेक्षा से कालादि सभी कारणों को मानते हैं।
आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि देव-कर्म और पुरुषार्थ के विषय में एकान्त दृष्टि का त्याग कर अनेकान्त दृष्टि ग्रहण करनी चाहिए। जहां मनुष्य ने बुद्धिपूर्वक प्रयत्न न किया हो और उसे इष्ट अथवा अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति हो, वहां मुख्यतः देव को मानना चाहिए क्योंकि यहां पुरुष प्रयत्न गौण है और दैव प्रधान है। वे दोनों एक दूसरे के सहायक बन कर ही कार्य को पूर्ण करते हैं। परन्तु जहां बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति हो, वहां अपने पुरुषार्थ को प्रधानता प्रदान करनी चाहिए और देव अथवा कर्म को गौण मानना चाहिए। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने देव और पुरुषार्थ का समन्वय किया है।
कर्म का स्वरूप
कर्म का साधारण अर्थ क्रिया होता है और वेदों से लेकर ब्राह्मणकाल तक वैदिक परंपरा में इसका यही अर्थ दृष्टिगोचर होता है। इस परंपरा में यज्ञयागादि नित्य नैमित्तिक क्रियाओं को कर्म की संज्ञा दी गई है। यह माना जाता था कि इन कर्मों का आचरण देवों को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है और देव इन्हें करने वाले व्यक्ति की मनोकामना पूर्ण करते हैं। जैन परंपरा को कर्म का क्रियारूप अर्थ मान्य है, किंतु जैन इसका केवल यही अर्थ स्वीकार नही करते। संसारी जीव की प्रत्येक क्रिया अथवा प्रवृत्ति तो कर्म है ही, किंतु जैन परिभाषा में इसे भाव कर्म कहते हैं। इसी भाव कर्म अर्थात् जीव की क्रिया द्वारा जो अजीव द्रव्य-पुद्गल द्रव्य आत्मा के संसर्ग में आ कर आत्मा को बंधन में
' आप्तमीमांसा का० ८८-९१ ।
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