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सूक्त है जिसकी को उत्पन्न ही समस्त भूतह प्रजापति काम
( ८७ ) कालवाद का मूल प्राचीन मालूम होता है। अथर्ववेद में एक कालसूक्त है जिसमें कहा है कि :
काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया, काल के आधार पर सूर्य तपता है, काल के आधार पर ही समस्त भूत रहते हैं, काल के कारण ही आँखें देखती हैं, काल ही ईश्वर है, वह प्रजापति का भी पिता है, इत्यादि । इसमें काल को सृष्टि का मूल कारण मानने का सिद्धांत है। किंतु महाभारत में मनुष्यों की तो बात क्या, समस्त जीवसृष्टि के सुख दुःख, जीवन मरण इन सब का आधार काल माना गया है। इस प्रकार महाभारत में भी एक ऐसे पक्ष का उल्लेख मिलता है जो काल को विश्व की विचित्रता का मूल कारण मानता था। उसमें यहां तक कहा गया है कि कर्म अथवा यज्ञयागादि अथवा किसी पुरुष द्वारा मनुष्यों को सुख दुःख नहीं मिलता। किंतु मनुष्य काल द्वारा ही सब कुछ प्राप्त करता है। समस्त कार्यों में समानरूपेण काल ही कारण है, इत्यादि । प्राचीन काल में काल का इतना महत्त्व होने के कारण ही दार्शनिक काल में नैयायिक आदि चिन्तकों ने यह माना कि अन्य ईश्वरादि कारणों के साथ काल को भी साधारण कारण माना जाए। स्वभाववाद
उपनिषद् में स्वभाववाद का उल्लेख है। जो कुछ होता है, वह स्वभाव से ही होता है। स्वभाव के अतिरिक्त कर्म या ईश्वर
१ अथर्व वेद १९. ५३-५४.
२ महाभारत शांतिपर्व अध्याय २५, २८, ३२, ३३ आदि । _____ 3 जन्यनां जनकः कालो जगतामाश्रयो मतः-- न्यायसिद्धांतमुक्ताबलि का० ४५, कालवाद के निराकरण के लिए शास्त्रवार्तासमुच्चय देखें २५२-९; माठरवृत्ति का० ६१,
४ श्वेता० १. २ ।
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