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शक्ति इतनी सीमित है कि वह परम तत्त्व के स्वरूप का यथार्थ वर्णन कर ही नहीं सकती, क्योंकि विचारकों ने भिन्न भिन्न शब्दों की परिभाषा अनेक प्रकार से की है । अतः उन शब्दों का प्रयोग करने से वस्तु का स्पष्टीकरण नहीं हो पाता । इसके विपरीत कई बार अधिक उलझन पैदा हो जाती है ।
मुक्तात्मा में शक्ति को पृथक रूप से स्वीकार करने पर यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि शक्ति क्या है ? इस पर विचार करते हुए आचार्यों ने कहा कि शक्ति के अभाव में अनन्त ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती, अतः ज्ञान में ही उसका समावेश कर लेना चाहिए ।
(५) मुक्ति स्थान
जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं, उनके मत में मुक्ति स्थान की कल्पना अनावश्यक थी । आत्मा जहाँ है, वहीं है, केवल उसका मल दूर हो जाता है, उसे अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं । यह भी तो प्रश्न है कि जब वह सर्वव्यापक है तब उसका गमन कहां हो ? किंतु जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन और जीवात्मा को अरूप मानने वाले भक्तिमार्गी वेदान्त दर्शन के सम्मुख मुक्ति स्थान विषयक समस्या का उपस्थित होना स्वाभाविक था । जैनों ने यह बात मानी है कि ऊर्ध्वलोक के अग्रभाग में मुक्तात्मा का गमन होता है और सिद्ध शिला नामक भाग में हमेशा के लिए उसकी स्थिति रहती है । भक्तिमार्गी वेदान्ती मानते हैं कि विष्णु भगवान् के विष्णु लोक में जो ऊर्ध्व लोक है, वहां मुक्त जीवात्मा का गमन होता है और उसे परब्रह्मरूप भगवान् विष्णु का हमेशा के लिए सांनिध्य प्राप्त होता है ।
• सर्वार्थसिद्धि १०. ४.
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