________________
२.-कर्म-विचारणा कर्म विचार का मूल ___ यह तो नहीं कहा जा सकता कि वैदिक काल के ऋषियों को मनुष्यों में तथा अन्य अनेक प्रकार के पशु, पक्षी एवं कीट पतंगों में विद्यमान विविधता का अनुभव नहीं हुआ होगा। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इस विविधता का कारण अन्तरात्मा में ढूंढने की अपेक्षा उसे बाह्यतत्त्व में मान कर ही सन्तोष कर लिया था।
किसी ने यह कल्पना की कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एक अथवा अनेक भौतिक तत्व हैं किंवा प्रजापति जैसा तत्त्व सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है। किन्तु इस सृष्टि में विविधता का आधार क्या है, इस के स्पष्टीकरण का प्रयत्न नहीं किया गया। जीवसृष्टि के अन्य वर्गों की बात छोड़ भी दें, तो भी केवल मानवसृष्टि में शरीरादि की, सुख-दुःख की, बौद्धिक शक्ति-अशक्ति की जो विविधता है, उसके कारण की शोध की गई हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। वैदिक काल का समस्त तत्वज्ञान क्रमशः देव और यज्ञ को केन्द्रबिन्दु बना कर विकसित हुआ। सर्व प्रथम अनेक देवों की और तत्पश्चात् प्रजापति के समान एक देव की कल्पना की गई। सुखी होने के लिए अथवा अपने शत्रुओं का नाश करने के लिए मनुष्य को चाहिए कि वह उस देव अथवा उन देवों की स्तुति करे, सजीव अथवा निर्जीव इष्ट वस्तु को यज्ञ कर उसे समर्पित करे। इससे देव सन्तुष्ट होकर मनोकामना पूरी करते हैं। यह मान्यता वेदों से लेकर ब्राह्मण काल तक विकसित होती रही । देवों को प्रसन्न करने के साधन भूत यज्ञ कर्म का क्रमिक विकास हुआ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org