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( ८२ ) अतः यह मानना निराधार है कि उपनिषदों में प्रस्फुटित होने वाले कर्मवाद विषयक नवीन विचार जैनसम्मत कर्मवाद के प्रभाव से रहित हैं। जो वैदिक परंपरा देवों के विना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ती थी, वह कर्मवाद के इस सिद्धान्त को हस्तगत कर यह मानने लगी कि फल देने की शक्ति देवों में नहीं प्रत्युत स्वयं यज्ञ कर्म में है। वैदिकों ने देवों के स्थान पर यज्ञकर्म को आसीन कर दिया। देव और कुछ नहीं, वेद के मंत्र ही देव हैं। इस यज्ञ कर्म के समर्थन में ही अपने को कृतकृत्य मानने वाली दार्शनिक काल की मीमांसक विचारधारा ने तो यज्ञादि कर्म से उत्पन्न होने वाले अपूर्व नाम के पदार्थ की कल्पना कर वैदिक दर्शन में देवों के स्थान पर अदृष्ट-कर्म-का ही साम्राज्य स्थापित कर दिया । - यदि इस समस्त इतिहास को दृष्टिसम्मुख रखें तो वैदिकों पर जैन परम्परा के कर्मवाद का व्यापक प्रभाव स्पष्टतः प्रतीत होता है।
वैदिक परंपरा में मान्य वेद और उपनिषदों तक की सृष्टिप्रक्रिया के अनुसार जड़ और चेतन सृष्टि अनादि न होकर सादि है। यह भी माना गया था कि वह सृष्टि किसी एक या किन्हीं अनेक जड़ अथवा चेतन तत्त्वों से उत्पन्न हुई है। इससे विपरीत कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह मानना पड़ता है कि जड़ अथवा जीव सृष्टि अनादिकाल से चली आ रही है। यह मान्यता जैन परंपरा के मूल में ही विद्यमान है। उसके अनुसार किसी ऐसे समय की कल्पना नहीं की जा सकती जब जड़ और चेतन का अस्तित्व-कर्मानुसारी अस्तित्व न रहा हो। यही नहीं, उपनिषदों के अनन्तरकालीन समस्त वैदिक मतों में भी संसारी जीव का अस्तित्व इसी प्रकार अनादि स्वीकार किया गया है। यह कर्मतत्त्व की मान्यता की ही देन है। कर्म तत्त्व की कुंजी इस सूत्र से प्राप्त होती है कि जन्म का कारण कर्म है। इसी सिद्धान्त के आधार पर संसार के अनादि
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