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परमब्रह्म, सिद्धात्मा, तथता आदि नाम चाहे भिन्न भिन्न हों, परन्तु वह तत्त्व एक ही है। इसी बात को आचार्य कुंदकुंद ने भी कहा है। उन्होंने कर्मविमुक्त परमात्मा के पर्याय कहे हैं-ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी, सर्वज्ञ, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध, परमात्मा। इससे भी ज्ञात होता है कि परम तत्त्व एक ही है, नामों में भेद हो सकता है।
इस प्रकार ध्येय की दृष्टि से निर्वाण में भेद नहीं, किंतु दार्शनिकों ने जब उसका वर्णन किया तब उसमें अन्तर पड़ गया और उस अन्तर का कारण दार्शनिकों की पृथक् पृथक् तत्त्व व्यवस्था है। इस तत्त्व व्यवस्था में जैसा भेद है, वैसा ही निर्वाण के वर्णन में दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक है। उदाहरणतः न्याय-वैशेषिक आत्मा और उसके ज्ञान सुखादि गुणों को भिन्न भिन्न मानते हैं और आत्मा में ज्ञानादि की उत्पत्ति को शरीर पर आश्रित मानते हैं। अतः यदि मुक्ति में शरीर का अभाव होता हो तो न्याय-वैशेषिकों को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मुक्तात्मा में ज्ञान, सुखादि गुणों का भी अभाव होता है। यही कारण है कि उन्हों ने यह बात मानी कि मुक्ति में आत्मा के ज्ञान, सुखादि गुणों की सत्ता नहीं रहती, केवल विशुद्ध चैतन्य तत्त्व शेष रहता है। इसी का नाम मुक्ति है। जीवात्माको मुक्ति में ज्ञान, सुखादि से रहित मान कर भी उन्होंने ईश्वरात्मा
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१ सदाशिवः परब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च। शब्दैस्तदुच्यतेऽन्वार्थांदेकमेवैवमादिभिः ॥
योगदृष्टि० १३०, षोडशक १६. १-४ ' भावप्राभृत १४९. 3 न्यायभाष्य १. १. २१; न्यायमंजरी पृ. ५०८
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