________________
( ६८ ) होना है। उपनिषद् में जिसे विशुद्ध सत्त्व कहा गया है, उसी को नागसेन ने विशुद्ध मनोविज्ञान कहा है। उपनिषदों में ब्रह्मदशा का निरूपण 'नेति नेति' कह कर दिया गया है,
और इसी बात को पूर्वोक्त प्रकार से नागसेन ने कहा है। जो वस्तु अनुभव ग्राह्य हो, उसका वर्णन संभव नहीं, और यदि किया भी जाए तो वह अधूरा रह जाता है। अतः श्रेष्ठ मार्ग यही है कि यदि निर्वाण के स्वरूप का ज्ञान करना ही तो स्वयं उसका साक्षात्कार किया जाए। भगवान् महावीर ने भी विशुद्ध
आत्मा के विषय में कहा है कि वहां वाणी की पहुंच नहीं, तर्क की गति नहीं, बुद्धि अथवा मति भी वहां पहुंचने में असमर्थ है; यह दीर्घ नहीं ह्रस्व नहीं, त्रिकोण नहीं, कृष्ण नहीं, नील नहीं, स्त्री नहीं और पुरुष भी नहीं। यह उपमारहित है और अनिर्वचनीय है। इस प्रकार भगवान् महावीर ने भी उपनिषदों और बुद्ध के समान 'नेति नेति का ही आश्रय लेकर विशुद्ध अथवा मुक्त आत्मा का वर्णन किया है। इस मुक्तात्मा के स्वरूप का यथार्थ अनुभव उसी समय होता है जब वह देह मुक्त होकर मुक्ति प्राप्त करे। __ ऐसी वस्तुस्थिति होने पर भी दार्शनिकों ने अवर्णनीय के भी वर्णन करने का प्रयत्न किया है। आचार्य हरिभद्र ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि यद्यपि उन वर्णनों में परिभाषाओं का भेद है, तथापि तत्त्व में कोई अन्तर नहीं। उन्होंने कहा है कि संसारातीत तत्त्व जिसे निर्वाण भी कहते हैं, अनेक नामों से प्रसिद्ध है, किंतु एक ही है। इसी एक तत्त्व के ही सदाशिव
१ बृहदा० ४.५.१५.
२ आचारांग सू० १७० 3 संसारातीतत्तत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् । तद्धयेकमेव नियमात् शब्दभेदऽपि तत्त्वतः ॥ योगदृष्टिसमुच्चय १२९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org