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कि अनात्मा में आत्माभिमान का दूर होना ही मोक्ष है । इस विषय में सभी दार्शनिक एक मत हैं । अब इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि मोक्ष अथवा मुक्त आत्मा का स्वरूप किस प्रकार का है। सभी दार्शनिकों का मत है कि मोक्षावस्था इन्द्रियग्राह्य नहीं, वचनगोचर नहीं, मनोग्राह्य नहीं तथा तर्कप्राय भी नहीं । कठोपनिषद् में स्पष्टरूपेण कहा है कि वाणी, मन अथवा चक्षु से इसकी प्राप्ति संभव नहीं, केवल सूक्ष्मबुद्धि से इसे ग्रहण किया जा सकता है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि तर्कप्रपंच सूक्ष्मबुद्धि की कोटी में नहीं आता । तप एवं ध्यान से एकाग्र हुआ विशुद्ध सत्त्व इसे ग्रहण कर सकता है । नागसेन के कथनानुसार बौद्ध मत में भी निर्वारण तो है किंतु उसका स्वरूप ऐसा नहीं जिसे संस्थान, वय और प्रमाण, उपमा, कारण, हेतु अथवा नय से बताया जा सके। जिस प्रकार यह प्रश्न स्थापनीय है - इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता - कि समुद्र में कितना पानी है और उसमें कितने जीव रहते हैं, उसी प्रकार निर्वाण विषयक उक्त प्रश्न का उत्तर देना भी संभव नहीं । लौकिक दृष्टि बाले पुरुष के पास इसे जानने का कोई साधन नहीं । यह न तो चक्षुर्विज्ञान का विषय है, न कान का, न नासिका का, न जिह्वा का और नही स्पर्श का विषय है । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि निर्वाण की सत्ता ही नहीं है । वह विशुद्ध मनोविज्ञान का विषय है । इस मनोविज्ञान की विशुद्धता का कारण उसका निरावरण"
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कठ २.६.१२; १.३.१२.
२ कठ २.८.९.
* मुंडक ३.१.८.
४ मिलिन्दप्रश्न ४.८.६६ – ७, पृ० ३०९
५ मिलिन्दप्रश्न ४.७.१५, पृ० २६५, उदान ७१.
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