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को नित्य ज्ञान, सुखादि से युक्त माना है। इस प्रकार आत्मा के स्थान पर परमात्मा में सर्वज्ञता और आत्यन्तिक सुखआनन्द मानकर न्याय-वैशेषिक भी उन दार्शनिकों की पंक्ति में सम्मिलित हो गए हैं जो मुक्तात्मा को ज्ञान एवं सुखादि से संपन्न मानते हैं। ___बौद्धों ने दीपनिर्वाण की उपमा से निर्वाण का वर्णन किया है। इससे एक यह मान्यता प्रचलित हुई कि निर्वाण में चित्त का लोप हो जाता है।२ निरोध शब्द का व्यवहार ऐसा था जो दार्शनिकों को भ्रम में डाल दे। इससे भी इस मान्यता को समर्थन पाप्त हुआ कि मुक्ति में कुछ भी शेष नहीं रहता। किन्तु बौद्ध दर्शन पर सम्पूर्णतः विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि वहां भी निर्वाण का स्वरूप वैसा ही बताया गया है जैसा कि उपनिषदों अथवा अन्य दर्शन शास्त्रों में । विश्व के सभी पदार्थ संस्कृत अथवा उत्पत्तिशील हैं, अतः क्षणिक हैं, किंतु निर्वाण अपवाद स्वरूप है। वह असंस्कृत है। उसकी उत्पत्ति में कोई भी हेतु नहीं, अतः उसका विनाश भी नहीं होता । असंस्कृत होने के कारण वह अजात, अभूत अकृत है। संस्कृत अनित्य, अशुभ और दुःखरूप होता है किंतु असंस्कृत ध्रुव, शुभ और
१ न्यायमंजरी पृ. २००-२०१।।
२ इसी का खंडन विशेषावश्यक भाष्य के गणधरवाद में किया गया है। गाथा १९७५. ___ 3 निरोध का वास्तविक अर्थ तृष्णाक्षय अथवा विराग है । विसुद्धि मग्ग ८. २४७; १६. ६४;
४ निर्वाण अभावरूप नहीं, इसका समर्थन विसुद्धिमग्ग १६ ३७; में देखें।
५ उदान ७३. विसुद्धि मग्ग १६.७४;
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