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( ५६ ) अविद्या-मोह-अज्ञान-मिथ्याज्ञान को बंध अथवा संसार का कारण
और विद्या अथवा तत्त्वज्ञान को मोक्ष का हेतु माना है। यह बात भी सर्वसम्मत है कि तृष्णा बंध की कारण भूत अविद्या की सहयोगिनी है, किन्तु मोक्ष के कारण भूत तत्त्वज्ञान के गौण-मुख्य भाव के संबंध में विवाद है। उपनिषदों के ऋषियों ने मुख्यतः तत्त्वज्ञान को कारण माना है और कर्म-उपासना को गौण स्थान दिया है। यह बात बौद्ध दर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, सांख्य दर्शन, शांकर वेदान्त आदि दर्शनों को भी मान्य है । मीमांसा दर्शन के अनुसार कर्म प्रधान है और तत्त्वज्ञान गौण । भक्ति संप्रदाय के मुख्य प्रणेता रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ इन सब के मत में भक्ति ही श्रेष्ठ उपाय है, ज्ञान व कर्म गौण हैं । भास्करानुयायी वेदान्ती और शव ज्ञान-कर्म के समुच्चय को मोक्ष का कारण मानते हैं और जैन भी ज्ञान-कर्म अर्थात् ज्ञान-चरित्र के समुच्चय को मोक्ष का कारण स्वीकार करते हैं। (२) बंध का कारण
समस्त दर्शन इस बात से सहमत हैं कि अनात्मा में आत्माभिमान करना ही मिथ्याज्ञान अथवा मोह है। अनात्मवादी बौद्धों तक यह बात स्वीकार करते हैं। भेद यह है कि आत्मवादियों के मत में आत्मा एक स्वतंत्र, शाश्वत वस्तु रूप में सत् है और पृथ्वी आदि तत्त्वों से निर्मित शरीर से पृथक् है। फिर भी शरीरादि को आत्मा मानने का कारण मिथ्याज्ञान है। किंतु बौद्धों के मत में आत्मा जैसी किसी स्वतंत्र शाश्वत वस्तु का अस्तित्व नहीं है, ऐसा होने पर भी शरीरादि अनात्मा में जो आत्म बुद्धि होती है, वह मिथ्याज्ञान अथवा मोह है। छान्दोग्यरे में कहा है कि
१ सुत्तनिपात ३. १२. ३३; विसुद्धिमग्ग १७. ३०२. २ छान्दोग्य ८. ८. ४-५
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