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है, उसी प्रकार उसका कार्य जीव भी अनादि है। अतः जीव तथा अविद्या का संबंध भी अनादि है।
सांख्य मत में भी प्रकृति और पुरुष का संयोग ही बंध है और वह अनादि काल से चला आ रहा है। प्रकृतिनिष्पन्न लिंग शरीर अनादि है और वह अनादि काल से ही पुरुष के साथ संबद्ध है। दूसरे दार्शनिकों की मान्यता है कि बंध और मोक्ष पुरुष के होते हैं, परन्तु सांख्य मत में बंध तथा मोक्ष प्रकृति के होते हैं, पुरुष के २ नहीं।
इसी प्रकार योगदर्शन के मत में भी द्रष्टा--पुरुष और दृश्यप्रकृति का संयोग अनादि कालीन है, उसे ही बंध समझना चाहिए ।
बौद्ध दर्शन में नाम और रूप का अनादि संबंध ही संसार या बंध है और उसका वियोग ही मोक्ष है।
जैन मत में भी जीव और कर्म पुद्गल का अनादि कालीन संबंध बंध है और उसका वियोग मोक्ष ।
इस प्रकार सांख्य, जैन, बौद्ध तथा पूर्वोक्त न्यायवैशेषिक आदि सब ने जीव व जड़ के संयोग को अनादि कालीन मान्य किया है और उसी का नाम संसार या बंध है।
जब हम यह कहते हैं कि जीव और शरीर का संबंध अनादि है, तब इस का तात्पर्य यह समझना चाहिए कि वह परंपरा से अनादि है। जीव नए नए शरीर ग्रहण करता है वह किसी भी समय शरीर रहित नहीं था। पूर्ववर्ती वासना के कारण नए नए
१ सांख्यका० ५२
3 योगदर्शन २. १७ योगभाष्य २. १७
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