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( ५८ ) में अनेक जीवों का अस्तित्व मान कर भी अद्वैत और द्वैत दोनों बहुत निकट हैं ऐसा प्रतीत होता है।'
नैयायिक आदि आत्मा को एकांत नित्य मान कर, वौद्ध अनित्य मान कर तथा जैन, मीमांसक और अधिकतर वेदान्ती उसे परिणामी नित्य मानकर उसमें कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व की सिद्धि करते हैं। किंतु इन सबके मतानुसार इन दोनों में से किसी का भी अस्तित्व मोक्ष में नहीं है। जब हम इस बात को अपने ध्यान में रखते हैं तब ज्ञात होता है कि सभी दर्शन एक ही उद्देश्य को सन्मुख रख प्रवृत्त हुए हैं और वह है-जीवों को कर्मपाश से कैसे मुक्त किया जाय।
जिस प्रकार नित्यवादियों के समक्ष यह प्रश्न था कि कर्म के कर्तृत्व और भोक्तत्व की उपपत्ति कैसे की जाए, उसी प्रकार यह भी समस्या थी कि नित्य आत्मा में जन्म मरण किस तरह होते हैं। उन्होने इस समस्या का यह समाधान किया है कि आत्मा के जन्म का तात्पर्य उसकी उत्पत्ति नहीं है। शरीरेन्द्रिय आदि से संबंध का नाम जन्म है और उनसे वियोग का नाम मृत्यु । इस प्रकार आत्मा के नित्य होने पर भी उसमें जन्म मरण होते हैं।
जीव का बंध और मोक्ष (१) मोक्ष का कारण
जीव के स्वतंत्र अस्तित्व को मानने वाले सभी भारतीय दर्शनों ने बंध और मोक्ष को स्वीकार किया ही है, परन्तु अनात्मवादी बौद्धों ने भी बंध मोक्ष को मान्यता प्रदान की है। समस्त दर्शनों ने
१ भगवती १४. ७.
२ न्यायभाष्य १. १. १९., ४. १. १०.; न्यायवा० ३. १. ४; ३. १. १९.
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