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अनात्म देहादि को आत्मा मानना असुरों का ज्ञान है और उससे आत्मा परवश हो जाती है। इसी का नाम बंध है। सर्व सारोपनिषद् में तो स्पष्टतः कहा है कि अनात्म देहादि में आत्मत्व का अभिमान करना बंध है और उससे निवृत्ति मोक्ष है। न्याय दर्शन के भाष्य में बताया गया है कि मिथ्याज्ञान ही मोह है और वह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप ही नहीं है, परन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना और बुद्धि इन सब के अनात्मा होने पर भी इनमें आत्मग्रह अर्थात् अहंकार---यह मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान-मिथ्याज्ञान अथवा मोह है। यह बात वैशेषिकों को भी मान्य है। सांख्य दर्शन में बंध विपयर्य पर आधारित है। और विपर्य ही मिथ्याज्ञान है । सांख्य मानते हैं कि इस विपर्यय से होने वाला बंध तीन प्रकार का है। प्रकृति को आत्मा मान कर उसकी उपासना करना प्राकृतिक बंध है ; भूत, इन्द्रिय, अहंकार, बुद्धि इन विकारों को आत्मा समझ कर उपासना करना वैकारिक बंध है और इष्ट-आपूर्त में संलग्न होना दाक्षिणक बध है।" सारांश यह है कि सांख्यों के अनुसार भी अनात्मा में आत्मबुद्धि करना ही मिथ्याज्ञान है। योग दर्शन के अनुसार क्लेश संसार के मूल हैं, अर्थात् बंध के कारण हैं और सब क्लेशों का मूल अविद्या है। सांख्य जिसे विपर्यय कहते हैं, योग दर्शन उसे क्लेश मानता है।
१ 'अनात्मानां देहादीनामात्मत्वेनाभिमान्यते सोऽभिमान आत्मनो 'बन्धः । तन्निवृत्तिर्मोक्षः ।-सर्वसारोपनिषद् ।
२ न्यायभाष्य ४.२.१; प्रशस्तपाद पृ० ५३८ (विपर्ययनिरूपण) ६ सांख्य का० ४४ ४ ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानम्-माठर वृत्ति ४४. ५ सांख्यतत्त्वकौमुदी का० ४४ ६ योगदर्शन २. ३; २.४
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