________________
( ३९ ) करते। उन्होंने अनेक आत्माएँ स्वीकार की, इससे उन पर वेदबाह्य विचारधारा का प्रभाव सूचित होता है। इसमें आश्चर्य नहीं कि प्राचीन सांख्य और जैन परंपरा ने इस विषय में मुख्य भाग लिया होगा। ऐतिहासिक इस तथ्य से सुपरिचित हैं कि प्राचीन काल में सांख्य भी अवैदिक दर्शन माना जाता था परन्तु बाद में उसे वैदिक रूप दे दिया गया ।
इस प्रासंगिक चर्चा के उपरान्त अब हम इस बात पर विचार करेंगे कि ब्रह्मसूत्र की व्याख्याओं में अद्वैत ब्रह्म के साथ अनेक जीवों की उपपत्ति करने में कौन कौन से मतभेद हुए।
(अ) वेदान्तियों के मतभेद' (१) शंकराचार्य का विर्वतवाद
शंकराचार्य का कथन है कि मूलरूप में ब्रह्म एक होने पर भी अनादि अविद्या के कारण वह अनेक जीवों के रूप में दृग्गोचर होता है। जैसे अज्ञान के कारण रस्सी में सर्प की प्रतीति होती है, वैसे ही अज्ञान के कारण ब्रह्म में अनेक जीवों की प्रतीति होती है। रस्सी सर्प रूप में उत्पन्न नहीं होती, नहीं वह सर्प को उत्पन्न करती है, फिर भी उसमें सर्प का भान होता है। इसी प्रकार ब्रह्म अनेक जीवों के रूप में उत्पन्न नहीं होता, अनेक जीवों को उत्पन्न भी नहीं करता, तथापि अनेक जीवों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। इसका कारण अविद्या या माया है। अतः अनेक जीव मायारूप हैं, मिथ्या हैं। इसी लिए उन्हें ब्रह्म का विवर्त कहा जाता है। यदि जीव का यह अज्ञान दूर हो जाए
१ इन मतभेदों का प्रदर्शन श्री गो० ह० भट्टकृत ब्रह्मसूत्राणुभाष्य के गुजराती भाषांतर की प्रस्तावना का मुख्य आधार लेकर किया गया है। उनका आभार मानता हूँ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org