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भी बौद्धों और चार्वाकों में एक महत्त्वपूर्ण भेद है । बौद्धों की मान्यता के अनुसार चेतन तो जन्य है परन्तु चेतन संतति अनादि है । चार्वाक प्रत्येक जन्य चेतन को सर्वथा भिन्न या अपूर्व ही मानते हैं । बौद्ध प्रत्येक जन्य चैतन्य क्षरण को उसके पूर्वजनक क्षण से सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न होने का निषेध करते हैं । बौद्ध दर्शन में चार्वाक का उच्छेदवाद किंवा उपनिषदों और अन्य दर्शनों का आत्मशाश्वतवाद मान्य नहीं, अतः वे आत्म संतति को अनादि मानते हैं, आत्मा को अनादि नहीं मानते । सांख्य योग, न्याय-वैशेषिक, पूर्व मीमांसा उत्तर मीमांसा और जैन ये समस्त दर्शन आत्मा को अनादि स्वीकार करते हैं, परन्तु जैन और पूर्व मीमांसा दर्शन का भाट्ट संप्रदाय आत्मा को परिणामी नित्य मानते हैं। शेष सभी दर्शन उसे कूटस्थ नित्य मानते हैं ।
आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने वाले, उसमें किसी भी प्रकार के परिणाम का निषेध करने वाले, संसार और मोक्ष को तो मानते ही हैं और आत्मा को परिणामी नित्य मानने वाले भी संसार व मोक्ष का स्तित्व स्वीकार करते हैं। अतः आत्मा को कूटस्थ या परिणामी मानने पर भी संसार और मोक्ष के विषय में किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है । वे दोनों हैं ही । यह एक अलग प्रश्न है कि उन दोनों की उपपत्ति कैसे की जाए ।
आत्मा के सामान्य स्वरूप चैतन्य का विचार करने के उपरांत उसके विशेष स्वरूप का विचार करना अब सरल है ।
जीव अनेक हैं
हम यह देख चुके हैं कि वेद से लेकर उपनिषदों तक की विचार धारा में मुख्यतः अद्वैत पक्ष का ही अवलम्बन किया गया है। अतः उपनिषदों के आधार पर जब ब्रह्मसूत्र में वेदान्त दर्शन की व्यवस्था की गई, तब भी उसमें अद्वैत के सिद्धांत को ही
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