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यही बात राजा मिलिन्द को अनेक दृष्टान्तों द्वारा भदन्त नागसेन ने समझायी है । उनमें एक दृष्टान्त यह था :- एक व्यक्ति दीपक जलाकर घास फूस की झोंपड़ी में भोजन करने बैठा । अकस्मात् उस दीपक से झोंपड़ी को आग लग गई। वह आग क्रमशः बढ़ते बढ़ते सारे गांव में फैल गई और उससे सारा गांव जल गया । भोजन करने वाले व्यक्ति के दीपक से केवल झोंपड़ी ही जली थी । किंतु उससे उत्तरोत्तर अभियों का जो प्रवाह प्रारंभ हुआ, उसने सारे गांव को भस्म कर दिया । यद्यपि दीपक की अग्नि से परंपराबद्ध उत्पन्न होने वाली अन्य अभियां भिन्न थीं, तथापि यह माना जाएगा कि दीपक ने गांव जला डाला | अतः दीपक जलाने वाला व्यक्ति अपराधी गिना जाएगा। यही बात पुद्गल के विषय में है । जिस पूर्व पुद्गल ने काम किया, वह पुद्गल चाहे नष्ट हो जाए, किंतु उसी पुगल के कारण नये पुद्गल का जन्म होता है और वह फल भोगता है । इस प्रकार कर्तृत्व और भोक्तृत्व संतति में सिद्ध हो जाते हैं और कोई कर्म प्रभुक्त नहीं रहता । जिसने कार्य किया, 'उसी को संतति की दृष्टि से उसका फल मिल जाता है । ' बौद्धों की यह कारिका सुप्रसिद्ध है
'यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रैव संधत्ते कार्पासे रक्तता यथा ॥ २
'जिस संतान में कर्म की वासना का पुट दिया जाता है, उसी में ही कपास की लाली के समान फल प्राप्त होता है ।'
धम्मपद का निम्न कथन संतति की अपेक्षा से कर्तृत्व और भोक्तृत्व की मान्यता के अनुसार ही है, अन्यथा नहीं - - " जो पाप है, उसे आत्मा ने ही किया है, वह आत्मा से ही उत्पन्न
१ मिलिन्द प्रश्न २ ३१ पृ० ४८, न्यायमंजरी पृ० ४४३. * स्याद्वादमंजरी में उद्धृत कारिका १८; न्यायमंजरी पृ० ४४३
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