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___ ( ५३ ) का जो समवाय है, उसी का नाम कर्तृत्व है।' अर्थात् आत्मा में ज्ञानादि का समवाय संबंध होना ही कर्तृत्व है, दूसरे शब्दों में
आत्मा में ज्ञानादि की उत्पत्ति आत्मा का कर्तृत्व है। आत्मा स्थिर है परन्तु उससे ज्ञान का संबंध होता है और वह नष्ट भी होता है। अर्थात् ज्ञान स्वयं ही उत्पन्न व नष्ट होता है, आत्मा पूर्ववत् स्थिर ही रहती है। इसी प्रकार उन्होंने भोक्तृत्व का स्पष्टीकरण किया है :-"सुख और दुःख के संवेदन का समवाय होना भोक्तृत्व है।"२ आत्मा में सुख और दुःख का जो अनुभव होता है, उसे भोक्तृत्व कहते हैं। यह अनुभव भी ज्ञानरूप होता है, अतः वह आत्मा में उत्पन्न और नष्ट होता है। फिर भी आत्मा विकृत नहीं होती। उत्पत्ति और विनाश अनुभव के हैं, आत्मा के नहीं। क्योकि इस अनुभव का समवाय संबंध आत्मा से होता है, अतः
आत्मा भोक्ता कहलाती है। उस संबंध के नष्ट हो जाने पर वह भोक्ता नहीं रहती। इस मत में द्रव्य और गुण में भेद है। अतः गुण में उत्पत्ति विनाश होने पर भी द्रव्य नित्य रह सकता है। इससे विपरीत जैन आदि जो दर्शन जीव को परिणामी मानते हैं, उन सबके मत में आत्मा की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ होने के कारण उसमें सर्वदा एकरूपता नहीं हो सकती। वही आत्मा कर्तृरूप में परिणत होकर फिर भोक्तारूप में परिणत हो जाती है। यद्यपि कर्तृरूप परिणाम और भोक्तृरूप परिणाम भिन्न भिन्न हैं, तथापि दोनों में आत्मा का अन्वय है। अतः एक ही आत्मा कर्ता और भोक्ता कहलाती है। इसी बात को नैयायिक इस ढंग से कहते हैं कि एक ही आत्मा में वस्तुज्ञान का पहले समवाय होता है अतः
१ 'ज्ञानचिकीर्षा प्रयत्नानां समवायः कर्तृत्वम्' न्यायवार्तिक ३.१.६.; न्यायमंजरी पृ० ४६९.
२ सुखदुःखसंवित्समवायो भोक्तृत्वम्-~-न्यायवा० ३.१.६
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