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(साख्यका० ६२) सुख दुःख ज्ञान भी प्रकृति के धर्म हैं, अात्मा के नहीं (सां० का० ११)। इस तरह वे आत्मा को सर्वथा अपरिणामी स्वीकार करते हैं। कर्तृत्व न होने पर भी भोग आत्मा में ही माना गया है। इस भोग के आधार पर भी आत्मा में परिणाम की संभावना है, अतः कुछ सांख्य भोग को भी वस्तुतः आत्मा का धर्म मानना उचित नहीं समझते । इस प्रकार उन्होंने आत्मा के कूटस्थ होने की मान्यता की रक्षा का प्रयत्न किया है। सांख्य के इस वाद को कतिपय उपनिषद्-वाक्यों का आधार भी प्राप्त है। अतः हम कह सकते हैं कि आत्मकुटस्थवाद प्राचीन है। (३) नैयायिक-वैशेषिकों का नित्यवाद
नैयायिक और वैशेषिक द्रव्य व गुणों को भिन्न मानते हैं। अतः उनके मतके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आत्मद्रव्य में ज्ञानादि गुणों को मानकर भी गुणों की अनित्यता के आधार पर आत्मा को अनित्य माना जाए। इसके विपरीत जैन आत्मद्रव्य से ज्ञानादि गुणों का अभेद भी मानते हैं। अतः गुणों की अस्थिरता के कारण वे आत्मा को भी अस्थिर या अनित्य कहते हैं। (४) वौद्धसम्मत अनित्यवाद ___ बौद्ध के मत में जीव अथवा पुद्ग्रल अनित्य हैं। प्रत्येक क्षण विज्ञान आदि चित्तक्षण नए नए उत्पन्न होते हैं और पुद्गल इन विज्ञान क्षणों से भिन्न नहीं हैं, अतः उनके मत में पुद्गल या जीव अनित्य हैं। किंतु एक पुद्गल की संतति अनादि काल से
१ सांख्यका० १७ २ सांख्यत० १७ . कठ १.२, १८-१९
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