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- जब सभी दर्शनों ने आत्मा की व्यापकता को स्वीकार किया, तब जैनों ने उसे देहपरिमाण मानते हुए भी केवलज्ञान की अपेक्षा से व्यापक कहना शुरू किया।' अथवा समुद्धात की अवस्था में
आत्मा के प्रदेशों का जो विस्तार होता है, उसकी अपेक्षा से उसे लोकव्याप्त कहा जाने लगा (न्यायखण्डखाद्य)।
आत्मा को देह परिमाण मानने वालों की युक्तियों का सार विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थों में दिया गया है, अतः इस विषय में अधिक लिखना अनावश्यक है। किंतु एक बात का यहां उल्लेख करना अनिवार्य है। जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं, उनके मत में भी संसारी आत्मा के ज्ञान, सुख, दुःख इत्यादि गुण शरीर मर्यादित आत्मा में ही अनुभूत होते हैं, शरीर के बाहर के आत्म प्रदेशों में नहीं। इस प्रकार संसारी आत्मा को व्यापक माना जाए अथवा शरीर प्रमाण, संसारावस्था तो शरीर मर्यादित श्रात्मा में ही है।
आत्मा को व्यापक स्वीकार करने वालों के मत में जीव की भिन्न भिन्न नारकादि गति संभव है, किंतु उनके अनुसार गति का अर्थ जीव का गमन नहीं। वे मानते हैं कि वहां लिंग शरीर का गमन होता है और उसके बाद वहां व्यापक आत्मा से नवीन शरीर का संबंध होता होता है। इसी को जीव की गति कहते हैं। इससे विपरीत देहपरिमाणवादी जैनों की मान्यता के अनुसार जीव अपने कार्मण शरीर के साथ उन स्थानों में गमन करता है और नए शरीर की रचना करता है। जो दार्शनिक जीव को अशुपरिमाण मानते हैं, उनके सिद्धान्तानुसार भी जीव लिंग शरीर को साथ ले कर गमन करता है और नए शरीर का निर्माण करता है। बौद्धों के मत में गति का अर्थ यह है कि मृत्यु के समय एक पुद्गल का निरोध
१ ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह टी० १०
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