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जीव नित्य है और अणुपरिमाण है, ब्रह्म का अंश है तथा ब्रह्म से अभिन्न है।" जीव की अविद्या से उसके अहंता अथवा ममतात्मक संसार का निर्माण होता है। विद्या से अविद्या का नाश होने पर उक्त संसार भी नष्ट हो जाता है
(आ) शैवों का मत हम यह वर्णन कर चुके हैं कि वेद और उपनिषदों को प्रमाण मानकर अद्वैत ब्रह्म-परमात्मा को मानने वाले वेदान्तियों ने जीवों के अनेक होने की उपपत्ति किस प्रकार सिद्ध की है। अब हम शिव के अनुयायी उन शैवों के मत पर विचार करेंगे जो वेद और उपनिषदों को प्रमाणभूत न मानते हुए और वैदिकों द्वारा उपदिष्ट वर्णाश्रम धर्म को अस्वीकार करते हुए भी अद्वैत मार्ग का आश्रय लेते हैं और उसके आधार पर अनेक जीवों की सिद्धि करते हैं। इस मत का दूसरा नाम 'प्रत्यभिज्ञादर्शन' भी है।
शेवों के मत में परम ब्रह्म के स्थान पर अनुत्तर नाम का एक तत्त्व है। यह तत्त्व सर्वशक्तिमान् नित्य पदार्थ है। उसे शिव और महेश्वर भी कहते हैं। जीव और जगत् ये दोनो शिव की इच्छा से शिव से ही प्रकट होते हैं। अतः ये दोनों पदार्थ मिथ्या नहीं, किन्तु सत्य हैं।
आत्मा का परिमाण उपनिषदों में आत्मा के परिमाण के विषय में अनेक कल्पनाएँ उपलब्ध होती हैं। किंतु इन सब कल्पनाओं के अंत में ऋषियों की प्रवृत्ति आत्मा को व्यापक मानने की ओर विशेष रूप से हुई।' यही कारण है कि लगभग सभी वैदिक दर्शनों ने आत्मा
' मुंडक १.१.६, वैशे० ७.१.२२; न्यायमंजरी पृ० ४६८ (विजय०); प्रकरणपं० पृ० १५८ ।
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