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( ४२ ) अणुपरिमाण हैं। अविद्या और कर्म के कारण जीव के लिए संसार का अस्तित्व है। रामानुज की मान्यता के समान मुक्ति में भी जीव और परमात्मा में भेद है, फिर भी जीव अपने को परमात्मा से अभिन्न समझता है। (५) मध्याचार्य का भेदवाद
वेदान्त दर्शन में समाविष्ट होने पर भी मध्वाचार्य का दर्शन वस्तुतः अद्वैती न हो कर द्वैती ही है। रामानुज आदि आचार्यों ने जगत् को ब्रह्म का परिणाम माना है, अर्थात् ब्रह्म को उपादान कारण स्वीकार किया है और इस प्रकार अद्वैतवाद की रक्षा की है। किंतु मध्वाचार्य ने परमात्मा को निमित्त कारण मान कर प्रकृति को उपादान कारण प्रतिपादित किया है। रामानुज आदि आचार्यों ने जीव को भी परमात्मा का ही कार्य, परिणाम, अंश आदि माना है और इस प्रकार दोनों में अभेद बताया है। परन्तु मध्वाचार्य ने अनेक जीव मान कर उनमें परस्पर भेद माना है और साथ ही ईश्वर से भी उन सब का भेद स्वीकार किया है। इस तरह मध्वाचार्य ने समस्त उपनिषदों की अद्वैत प्रवृत्ति को बदल डाला है। उनके मत में जीव अनेक हैं, नित्य हैं, और अणुपरिमागा हैं। जिस प्रकार ब्रह्म सत्य है, उसी प्रकार जीव भी सत्य हैं, परन्तु वे परमात्मा के अधीन हैं। (६) विज्ञानभिक्षु का अविभागाद्वैत
विज्ञान भिक्षु का मत है कि प्रकृति और पुरुष जीव-ये दोनों ब्रह्म से भिन्न हो कर विभक्त नहीं रह सकते, किंतु वे उसमें अन्तहिंत-गुप्त-अविभक्त हैं, अतः उसके मत का नाम 'अविभागाद्वैत' है। पुरुष या जीव अनेक हैं, नित्य हैं, व्यापक हैं। जीव और ब्रह्म का संबंध पिता पुत्र के संबंध के समान है। वह अंशाशिभाव युक्त है। जन्म से पूर्व पुत्र पिता में ही था, उसी प्रकार
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