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( ५० ) दार्शनिकों ने अपनी अपनी पद्धति से संसार और मोक्ष की उपपत्ति तो की ही है। इससे नित्य मानने वालों के मत में उसकी सर्वथा एकरूपता और अनित्य मानने वालों के मत में उसका सर्वथा भेद स्थिर नहीं रह सकता। अतः संसार और मोक्ष की कल्पना के साथ परिणामी नित्यवाद अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। जैन, मीमांसक और वेदान्त के शंकरव्यतिरिक्त टीकाकारों ने इसी वाद को मान्यता दी है।
जीव का कर्तृत्व तथा भोक्तृत्व आत्मवादी समस्त दर्शनों ने भोक्तृत्व तो स्वीकार किया ही है, किंतु कर्तृत्व के विषय में केवल सांख्य का मत दूसरों से भिन्न है। उसके अनुसार आत्मा का नहीं किन्तु भोक्ता है और यह भोक्तृत्व भी औपचारिक है।' (१) उपनिषदों का मत ___ उपनिषदों में जीव के कर्तृत्व व भोक्तृत्व का वर्णन है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है कि यह जीवात्मा फल के लिए कर्मों का कर्ता है और किए हुए कर्मों का भोक्ता भी है। वहां यह भी बताया गया है कि जीव वस्तुतः न स्त्री है, न पुरुष और नही नपुंसक। अपने कर्मों के अनुसार वह जिस शरीर को धारण करता है, उससे उसका संबंध हो जाता है। शरीर की वृद्धि और जन्म-संकल्प, विषय के स्पर्श, दृष्टिमोह, अन्न और जल से होते हैं। देह युक्त जीव अपने कर्मों के अनुसार शरीरों
' इस वाद के सदृश उपनिषदों में भी कथन है-मैत्रायणी २.१०-११; सांख्य का० १९ . . २ श्वेताश्वतर ५.७.
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