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चली आ रही है और भविष्य में भी वह चालू रहेगी । अतः द्रव्य नित्यता के स्थल पर संततिनित्यता तो बौद्धों को भी अभीष्ट है । कार्य-कारण की परंपरा को संतति कहते हैं। इस परंपरा का कभी उच्छेद नहीं हुआ और भविष्य में भी उसका क्रम विद्यमान रहेगा । कुछ बौद्ध विद्वानों के अनुसार निर्वाण के समय यह परंपरा समाप्त हो जाती है, किंतु कुछ अन्य बौद्धों के मत से विशुद्ध चित्तपरंपरा कायम रहती है। अतः इस अपेक्षा से कहा जा सकता है कि बौद्धों को संततिनित्यता मान्य है ।
( ५ ) वेदान्तसम्मत जीव की परिणामी नित्यता
वेदान्त में ब्रह्मात्मा-परमात्मा को एकांत नित्य माना गया है । किन्तु जीवात्मा के विषय में जो अनेक मन्तव्य हैं, उनका वर्णन पहले किया जा चुका है । उसके अनुसार शंकराचार्य के मत में जीवात्मा मायिक है, वह अनादिकालीन ज्ञान के कारण अनादि तो है, किन्तु अज्ञान का नाश होने पर वह ब्रह्मैक्य का अनुभव करती है । उस समय जीवभाव नष्ट हो जाता है । अतः यह कल्पना की जा सकती है कि मायिक जीव ब्रह्म रूप में नित्य है और मायारूप में नित्य ।
शंकराचार्य को छोड़कर लगभग समस्त वेदान्ती ब्रह्म का विवर्त न मानकर परिणाम स्वीकार करते हैं, इस दृष्टि से जीवात्मा को परिणामी नित्य कहना चाहिए। जैन व मीमांसकों के परिणामी नित्यवाद तथा वेदान्तियों के परिणामी नित्यवाद में यह अन्तर है कि जैन व मीमांसकों के मत में जीव स्वतंत्र हैं और उनका परिणमन हुआ करता है, किन्तु वेदान्तियों के परिणामी नित्यवाद में जीव और ब्रह्म की अपेक्षा से परिणामवाद की घटना है, अर्थात् ब्रह्म के विविध परिणाम ही जीव हैं ।
जीव को सर्वथा नित्य माना जाए अथवा अनित्य, किन्तु सभी
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