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__ ( ३८ ) पुष्ट किया गया। किंतु संसार में जो अनेक जीव प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, उनका निषेध करना सरल नहीं था। अतः हम देखते हैं कि तत्त्वतः एक आत्मा मान कर भी उस एक अद्वैत आत्मा अथवा ब्रह्म के साथ संसार में प्रत्यक्ष दृग्गोचर होने वाले अनेक जीवों का क्या संबंध है, इस बात की व्याख्या करना आवश्यक था। ब्रह्मसूत्र के टीकाकारों ने यह स्पष्टीकरण किया भी है। किंतु इसमें एकमत स्थिर नहीं हो सका। अतः व्याख्याभेद के कारण वेदान्त दर्शन की अनेक परंपराएँ बन गई हैं।
वेदान्त दर्शन के समान अन्य भी वैदिक दर्शन हैं। किंतु उन्होंने वेदान्त की भांति उपनिषदों को ही आधार भूत मानकर अपने दर्शन की रचना नहीं की। रूढि के कारण शास्त्र अथवा आगम के स्थान पर वेद और उपनिषदों को मानते हुए भी उन दर्शनों में उपनिषदों के अद्वैत पक्ष को आदर नहीं मिला, परंतु वहाँ वेदेतर जैन दर्शन के समान आत्मा को तत्त्वतः अनेक माना गया है। ऐसे वैदिक दर्शन न्याय-वैशेषिक, सांख्य, योग और पूर्व मीमांसा हैं। यह पक्ष बौद्धो को भी मान्य है।
वेदान्त पक्ष और वेदान्तेतर पक्ष में मौलिक भेद यह है कि वेदान्त मत में एक आत्मा ही मौलिक तत्त्व है और संसार में दिखाई देने वाली अनेक आत्माएँ उस एक मौलिक आत्मा के ही कारण से हैं, वे सब स्वतंत्र नहीं हैं। इसके विपरीत इतर पक्ष का कथन है कि संसार में दृष्टिगोचर होने वाली अनेक आत्माओं में प्रत्येक स्वतंत्र
आत्मा है, वह अपने अस्तित्व के लिए तत्त्वतः किसी अन्य आत्मा पर आश्रित नहीं है।
वेद और उपनिषदों के अनुयायियों को इन ग्रंथों की विचार धारा स्वीकार करनी चाहिए अर्थात्, अद्वैत पक्ष को मान्यता देनी चाहिए, किन्तु वेदान्त के अतिरिक्त अन्य वैदिक दर्शन ऐसा नहीं
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