________________
(८) दार्शनिकों का आत्मवाद
उपनिषत्-काल के पश्चात् भारतीय विविध दर्शनों की व्यवस्था हुई है, अतः अब इस विषय का निर्देश करना भी आवश्यक है। उपनिषद् चाहे दीर्घ काल की विचार परंपरा को व्यक्त करते हों, किंतु, उनमें एक सूत्र सामान्य है। भूतवाद की प्रधानता मानी जाए या आत्मवाद की, यह एक बात निश्चित है कि विश्व के मूल में किसी एक ही वस्तु की सत्ता है, अनेक वस्तुओं की नहीं। यह एकसूत्रता समस्त उपनिषदों में दृष्टिगोचर होती है। ऋग्वेद (१०.१२९) में उसे 'तदेक' कहा गया था, किंतु उसका नाम नहीं बताया गया था। ब्राह्मण काल में उस तत्त्व को प्रजापति की संज्ञा दी गई। उपनिषदों में उसे सत्, असत्, आकाश, जल, वायु, प्राण, मन, प्रज्ञा, आत्मा, ब्रह्म आदि विविध नामों से प्रकट किया गया। किंतु उनमें विश्व के मूल में अनेक तत्त्वों को स्वीकार करने वाली विचारधारा को स्थान नहीं मिला। जब दार्शनिक सूत्रों की रचना हुई तब वेदान्त दर्शन के अतिरिक्त किसी भी भारतीय वैदिक अथवा अवैदिक दर्शन में अद्वैतवाद को आश्रय मिला हो, यह ज्ञात नहीं होता। अतः हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि चाहे उपनिषदों के पहले का अवैदिक परंपरा का साहित्य उपलब्ध न हुआ हो, परन्तु अद्वैतविरोधी परंपरा का अस्तित्व अति प्राचीन काल से अवश्य था। इस परंपरा के अस्तित्व के आधार पर ही वेद व ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रतिपादित वैदिक कर्मकांड के स्थान पर स्वयं वेदानुयायिओं ने भी ज्ञानमार्ग और आध्यात्मिक मार्ग को ग्रहण किया और इसी परंपरा के कारण वैदिक दर्शनों ने अद्वैत मार्ग का त्याग कर द्वैत मार्ग अथया बहुतत्त्ववादी परंपरा को स्थान दिया। वेदविरोधी श्रमण परंपरा में जैन परंपरा, आजीवक परंपरा, बौद्ध परंपरा, चार्वाक परंपरा आदि अनेक परंपराएँ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org