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वृक्ष के प्रश्न की भांति नहीं बताया जा सकता। अर्थात् बीज
और वृक्ष के समान कर्म एवं विपाक अनादि काल से एक दूसरे पर आश्रित चले आ रहे हैं।
पुनश्च यह भी नहीं कहा जा सकता कि कर्म और विपाक की यह परंपरा कब निरुद्ध होगी। इस बात को न जानने से तैर्थिक पराधीन होते हैं।
सत्त्व-जीव के विषय में कुछ लोग शाश्वतवाद का और कुछ उच्छेदवाद का अवलम्बन लेते हैं और परस्पर विरोधी दृष्टिकोण अपनाते हैं। __ भिन्न भिन्न दृष्टियों के बन्धन में बद्ध होकर वे तृष्णारूपी स्रोत में फंस जाते हैं और उसमें फंस जाने के कारण वे दुःख से मुक्त नहीं हो सकते।
इस तत्त्व को समझकर बुद्ध श्रावक गंभीर, निपुण और शून्य रूप प्रत्यय का ज्ञान प्राप्त करता है।
विपाक में कर्म नहीं है और कर्म में विपाक नहीं है, ये दोनों एक दूसरे से रहित हैं, फिर भी कर्म के बिना फल या विपाक होता ही नहीं।
- जिस प्रकार सूर्य में अग्नि नहीं है, मणि में नहीं है, उपलों (गोबर) में भी नहीं है, किन्तु वह इनसे भिन्न पदार्थों में भी नहीं है, जब इन सबका समुदाय होता है तब वह उत्पन्न होती है; उसी प्रकार कर्म का विपाक कर्ममें उपलब्ध नहीं होता
और कर्म के बाहर नहीं मिलता तथा विपाक में भी कर्म नहीं है। इस प्रकार कर्म फलशून्य है, कर्म में फल का अभाव है, फिर भी कर्म के होने पर ही फल मिलता है।
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