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( २५ ) वाला वही है । यही द्रष्टा है, यही श्रोता है, यही मनन करने वाला है, यही विज्ञाता है। यह नित्य चिन्मात्र रूप है, सर्व प्रकाश रूप है, चिन्मात्र ज्योति स्वरूप है।
इस पुरुष अथवा चिदात्मा को अजर, अक्षर, अमृत, अमर, अव्यय, अज, नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अनन्त माना गया है । इस विषय में कठ० (१.३.१५) में लिखा है कि अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, अरस, नित्य, अगन्धवत्, अनादि, अनन्त महत् तत्त्व से पर, ध्रुव ऐसी आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य मृत्यु के मुख से मुक्त हो जाता है।
(७) भगवान् बुद्ध का अनात्मवाद
हम यह देख चुके हैं कि विचारक सब से पहले बाह्यदृष्टि से ग्राह्य भूत को ही मौलिक तत्त्व मानते थे, किन्तु काल क्रम से उन्होंने
आत्मतत्त्व को स्वीकार किया। वह तत्त्व इन्द्रिय ग्राह्य न होकर अतीन्द्रिय था। जब उन्हें इस प्रकार के अतीन्द्रिय तत्त्व का बोध हुआ, तब यह स्वाभाविक था कि वे उसके स्वरूप के संबंध में विचार करने लगें। जिस समय प्राण, मन, और प्रज्ञा से भी पर
आत्मा की कल्पना का जन्म हुआ, तब चिन्तकों के समक्ष नये नये प्रश्न उपस्थित होने लगे। प्राण, मन और प्रज्ञा ऐसे पदार्थ थे जिन का ज्ञान सरल था, किंतु आत्मा तो इन सब से पर माना गया । अतः उसका ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया जाए, वह कैसा है,
१ बृहदा० ३. ४ १-२ । २ बृहदा० ३.७. २३, ३. ८. ११ । 3 मैत्रेय्युपनिषद् ३.१६.२१.
४ कठ ३.२; वृहदा० ४.४.२०; ३.८.८; ४.४.२५; श्वेता० १.९ इत्यादि
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