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उपनिषत् के पूर्वोक्त भूतवादी और दार्शनिक सूत्रकाल के नास्तिक अथवा चार्वाक भी अनात्मवादी हैं और भगवान् बुद्ध भी अनात्मवादी हैं । दोनों इस बात से सहमत हैं कि आत्मा सर्वथा स्वतंत्र द्रव्य नहीं और वह नित्य या शाश्वत भी नहीं । अर्थात् दोनों के मत में आत्मा एक उत्पन्न होने वाली वस्तु है। किंतु चार्वाक और भगवान् बुद्ध में मतभेद यह है कि भगवान् बुद्ध यह स्वीकार करते हैं कि पुद्गल, आत्मा, जीव, चित्त नाम की एक स्वतंत्र वस्तु है, जब कि भूतवादी उसे चार पांच भूतों से उत्पन्न होने वाली एक परतंत्र वस्तु मात्र मानते हैं । भगवान बुद्ध भी जीव, पुद्गल अथवा चित्त को अनेक कारणों द्वारा उत्पन्न तो मानते हैं और इस अर्थ में वह परतंत्र भी है, किंतु इस उत्पत्ति के जो कारण हैं उनमें विज्ञान और विज्ञानेतर दोनों प्रकार के कारण विद्यमान होते हैं; जब कि चार्वाक मत में चैतन्य की उत्पत्ति में चैतन्य से व्यतिरिक्त भूत ही कारण हैं, चैतन्य कारण है ही नहीं । तात्पर्य यह है कि भूतों के समान विज्ञान भी एक मूल तत्त्व है जो जन्य और अनित्य है, यह भगवान् बुद्ध की मान्यता है और चार्वाक भूतों को ही मूल तत्त्व मानते हैं । बुद्ध चैतन्य विज्ञान की संतति-धारा को अनादि मानते हैं किंतु चार्वाक मत में चैतन्य धारा जैसी कोई चीज नहीं है । नदी का प्रवाह धाराबद्ध जल बिन्दुओं द्वारा निर्मित होता है और उसमें एकता की प्रतीति होती है। उसी प्रकार विज्ञान की संतति परंपरा से विज्ञान धारा का निर्माण होता है और उसमें भी एकत्व की झलक नजर आती है। वस्तुतः जल बिन्दुओं के समान ही प्रत्येक देश और काल में विज्ञान क्षण भिन्न ही होते हैं। ऐसी विज्ञान धारा भगवान् बुद्ध को मान्य थी, किंतु चार्वाक उसे भी स्वीकार नहीं करते ।
भगवान बुद्ध ने रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार व विज्ञान, चक्षु आदि इन्द्रियां, उनके विषय, उनसे होने वाले ज्ञान, मन, मानसिक
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