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( १८ ) रूप रस गंध और पांच कोष मन से उत्पन्न हुए हैं, जागरण स्वप्न सुषुप्ति इत्यादि मनोमय हैं, दिक्पाल, वसु, रुद्र, आदित्य भी मनोमय हैं।' (४) प्रज्ञात्मा, प्रज्ञानात्मा, विज्ञानात्मा ___ कौषीतकी उपनिषद् में प्राण को प्रज्ञा और प्रज्ञा को प्राण संज्ञा दी गई है। उससे विदित होता है कि प्राणात्मा के बाद जब प्रज्ञात्मा का अन्वेषण हुआ, तब प्राचीन और नवीन का समन्वय आवश्यक था । 'इन्द्रियां और मन ये दोनों प्रज्ञा के बिना सर्वथा अकिंचित्कर हैं। यह बात कह कर कौषीतकी में बताया गया है कि प्रज्ञा का महत्त्व इन्द्रियों और मन की अपेक्षा भी अधिक है। इससे प्रतीत होता है कि प्रज्ञात्मा मनोमय आत्मा की भी अन्तरात्मा है। इसी बात का संकेत तैत्तिरीय उपनिषद् में (२. ४) विज्ञानात्मा को मनोमय आत्मा का अन्तरात्मा बता कर किया गया है। अतः प्रज्ञा और विज्ञान को पर्यायवाची स्वीकार करने में कोई हानि नहीं। ऐतरेय उपनिषद् में प्रज्ञान ब्रह्म के जो पर्याय दिए गए हैं, उनमें मन भी है। इससे ज्ञात होता है कि पूर्वकल्पित मनोमय आत्मा के साथ प्रज्ञानात्मा का समन्वय है। उसी उपनिषद् में प्रज्ञा
और प्रज्ञान को एक ही माना है। और प्रज्ञान के पर्याय के रूप में विज्ञान भी लिखा है।
। तेजोबिन्दु उपनिषद् ५. ९८, १०४; २ 'प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्मा' कौषीतकी ३. २, ३. ३; यो वै प्राणः सा
प्रज्ञा । या वा प्रज्ञा स प्राणः -कौषी ३. ३; ३. ४ 3 कौषी, ३. ६. ७. गुजराती अनुवाद-पृ० ८९२ ४ ऐतरेय ३. २. ५ ऐतरेय ३. ३.
६ ऐतरेय ३. २.
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