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मनुष्य में वह विकास करते करते तीनों कालों का विचारक बन जाता है।
(२) प्राणात्मवाद-इन्द्रियात्मवाद
उपनिषदों में उपलब्ध वैरोचन और इन्द्र की कथा का एक अंश देहात्मवाद की चर्चा में लिखा जा चुका है। यह भी कहा जा चुका है कि इन्द्र को प्रजापति के इस स्पष्टीकरण से सन्तोष नहीं हुआ कि देह ही आत्मा है। अतः हम यह मान सकते हैं कि उस युग में केवल इन्द्र ही नहीं अपितु उस जैसे कई विचारकों के मन में इस प्रश्न के विषय में उलझन हुई होगी और उनकी उस उलझन ने ही आत्मतत्त्व के विषय में अधिक विचार करने के लिये उन्हें प्रेरित किया होगा। चिन्तनशील व्यक्तियों ने जब शरीर की आध्यात्मिक क्रियाओं का निरीक्षण-परीक्षण प्रारंभ किया होगा, तब सर्वप्रथम उनका ध्यान प्राण की ओर आकृष्ट हुआ हो, यह स्वाभाविक है। उन्होंने अनुभव किया होगा कि निद्रा की अवस्था में जब समस्त इन्द्रियाँ अपनी अपनी प्रवृत्ति स्थगित कर देती हैं, तब भी श्वासोच्छवास जारी रहता है। केवल मृत्यु के पश्चान् इस श्वासोच्छवास के दर्शन नहीं होते। इस बात से वे इस परिणाम पर पहुंचे कि जीवन में प्राण का ही सर्वाधिक महत्त्व है। अतः उन्होंने इस प्राण तत्त्व को ही जीवन की समस्त क्रियाओं का कारण माना'। जिस समय विचारकों ने शरीर में स्फुरित होने वाले तत्त्व की प्राणरूप से पहिचान की, उस समय उसका महत्त्व बहुत बढ़ गया और उस विषय में अधिक से अधिक विचार हाने लगा। परिणाम स्वरूप प्राण के संबंध में छान्दोग्य उपनिषद्
'तैत्तिरीय २.२,३,. कौषीतकी ३.२. २ छान्दोग्य ३. १५. ४
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