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( १३ ) में कहा गया कि इस विश्व में जो कुछ है वह प्राण है। बृहदारण्यक' में तो उसे देवों के भी देव का पद प्रदान किया गया ।
प्राण अर्थात् वायु को आत्मा मानने वालों का खंडन नागसेन ने मिलिन्द प्रश्न में किया है।
शरीर में होने वाली क्रियाओं के जो भी साधन हैं, उन में इन्द्रियों का भाग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। अतः यह स्वाभाविक है कि विचारकों का ध्यान उस ओर प्रवृत्त हो और वे इन्द्रियों को ही आत्मा मानने लगें । बृहदारण्यक उपनिषद् में इन्द्रियों की प्रतियोगिता का उल्लेख है और उनके इस दृढ़ निर्णय का भी वर्णन है कि वे स्वयं ही समर्थ हैं । अतः हम यह भी मान सकते हैं कि कुछ लोगों की प्रवृत्ति इन्द्रियों को आत्मा समझने की रही होगी। दार्शनिक सूत्र-टीकाकाल में इस प्रकार के इन्द्रियात्मवादियों का खंडन भी किया गया है, अतः यह निश्चित है कि किसी किसी व्यक्ति ने इस सिद्धान्त को अवश्य स्वीकार किया होगा। प्राणात्मवाद के समर्थकों ने इस इन्द्रियात्मवाद के विरुद्ध जो युक्तियाँ दीं, वे हमें बृहदारण्यक में दृष्टिगोचर होती हैं। उनमें कहा गया है कि मृत्यु समस्त इन्द्रियों को थका देती है किंतु उनके बीच रहने वाले प्रागा को वह कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकती, अतः इन्द्रियों ने प्राण के रूप को ग्रहण किया, इसीलिए इन्द्रियों को भी प्राण कहते हैं ।
प्राचीन जैन आगमों में जिन दस प्राणों का वर्णन है, उनमें - इन्द्रियों को भी प्राण गिना गया है। इससे भी उपर्युक्त बात का
'बृहदारण्यक १. ५. २२-२३ २ मिलिन्द प्रश्न २. १०
बृहदारण्यक १. ५. २१ ४ बृहदारण्यक १. ५. २१
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