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अन्नमय आत्मा का परिचय दिया गया है और यह बताया गया है कि अन्न से पुरुष की उत्पत्ति हुई है, उसकी वृद्धि भी अन्न से होती है और वह अन्न में ही विलीन होता है। अतः यह पुरुष अन्नरसमय है। देह को आत्मा मानकर यह विचारणा हुई है।
प्राकृत एवं पालि के ग्रन्थों में इस मन्तव्य को 'तज्जीवतच्छरीरवाद' के रूप में प्रतिपादित किया गया है और दार्शनिक सूत्रकाल में इसी का निर्देश 'देहात्मवाद' द्वारा किया गया है।
जैन आगम और बौद्ध त्रिपिटक में इस बात का भी निर्देश है कि इस देहात्मवाद से मिलता जुलता चतुर्भूत अथवा पंचभूत को आत्मा मानने वालों का द्धान्तसि भी प्रचलित था। ऐसा मालूम होता है कि विचारक गण जब देहतत्त्व का विश्लेषण करने लगे होंगे तब किसी ने उसे चार भूतात्मक और किसी ने उसे पांचभूतात्मक माना होगा। ये भूतात्मवादी अथवा देहात्मवादी अपने पक्ष के समर्थन में जो युक्तियां देते थे, उनमें मुख्य ये थीं:
जिस प्रकार कोई पुरुष म्यान से तलवार बाहर खींचकर उसे अलग दिखा सकता है, उसी प्रकार आत्मा को शरीर से निकाल कर कोई भी पृथक् रूपेण नहीं बता सकता। अथवा जिस प्रकार तिलों में से तेल निकाल कर बताया जा सकता है, या दही से मक्खन निकाल कर दिखाया जा सकता है, उसी प्रकार जीव को शरीर से पृथक् निकाल कर नहीं बताया जा सकता। जब तक
। तैत्तिरीय २.१, २, २ ब्रह्मजाल सुत्त (हिन्दी) पृ० १२; सूत्रकृतांग । सूत्रकृतांग १. १ १. ७.८,
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