________________
अपभ्रंश-साहित्य
यद्यपि इस शिलालेख का समय दानपत्र में ४०० शक सं० मिलता है किन्तु प्रो० व्यूलर इसको जाली समझते हैं ।' जाली होते हुए भी उनके विचार में यह दानपत्र शक संवत् ४०० के सौ दो सौ वर्ष बाद लिखा गया । २ उनके कथनानुसार भी इतना तो निश्चित है कि शक संवत् ६०० या ६७८ ई० तक अपभ्रंश में रचना करना हेय नहीं समझा जाता था ।
कुवलयमाला कथा के लेखक उद्योतन सूरि ( वि० सं० ८३५) अपभ्रंश को प्रदर की दृष्टि से देखते हैं और उसके काव्य की प्रशंसा भी करते हैं । 3
नवीं शताब्दी में रुद्रट अपने काव्यालंकार में काव्य को गद्य और पद्य में विभक्त करने के अनन्तर भाषा के आधार पर उसका छः भाग में विभाजन करते हैंभाषाभेदनिमित्त: षोढा भेदोऽस्य संभवति ।
२. ११
प्राकृत संस्कृत मागध पिशाच भाषाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देश विशेषादपभ्रंशः ॥
-
२. १२
इस प्रकार रुद्रट अपभ्रंश को अन्य साहित्यिक प्राकृतों के समान गौरव का पद देते हैं और देश-भेद के कारण विविध अपभ्रंश भाषाओं का उल्लेख करते हैं ।
पुष्पदन्त ( लगभग १० वीं शताब्दी) ने अपने महापुराण में संस्कृत और प्राकृत के साथ अपभ्रंश का भी स्पष्ट उल्लेख किया है । उस समय संस्कृत और प्राकृत के साथ अपभ्रंश का ज्ञान भी राजकुमारियों को कराया जाता था ।
४
प्रायः इसी समय राजशेखर ने अपनी काव्य-मीमांसा में अनेक स्थलों पर अपभ्रंश का निर्देश किया है । " अपने पूर्ववर्ती आलंकारिकों की तरह इन्होंने भी संस्कृत, प्राकृत और पैशाची के समान अपभ्रंश भाषा को भी पृथक् साहित्यिक भाषा स्वीकार
१. इंडियन एंटिक्वेरी, भाग १०, अक्तूबर १८८१, पृ० २७७ ॥ २. वही पृ० २८२ ॥
३. ता किं श्रवहंस होहिइ ? हूँ । तं पि गो जेरग तं सक्कयपाय- उभय सुद्धासुद्ध पायसम तरंग रंगत वग्गिरं गव पाउस जलय पवाह पूरपव्वालिय गिरिणइ सरिसं सम विसमं परणय कुविय पियपरणइरणी समुल्लाव सरिसं मरणोहरं । लालचन्द भगवानदास गान्धी - श्रपभ्रंश काव्यत्रयी, गायकवाड़ सीरीज, सं० ३७, भूमिका पृ० ६७-६८ से उद्धृत |
४. सवक्कउ पायउ पुरण अवहंसउ वित्तउ उप्पा उ सपसंसउ
महापुराण, ५. १८. ६ ।
५. काव्यमीमांसा, गायकवाड़ ओरियंटल सिरीज, संख्या १, बडौदा, १९२४ ई० अध्याय ३, पृ० ६ पर काव्यपुरुष का वर्णन,
अध्याय १०, पृ० ५४-५५, अध्याय ६, पृ० ४८ ।