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अपभ्रंश-साहित्य
एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुरणजितम्। विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थान्तरात्मकम् ॥ त्रिविधं तच्च विज्ञेयं नाट्ययोगे समासतः। समान शब्दं विभ्रष्टं देशीगतमथापि च ॥
नाट्य० १७. २-३ अर्थात् प्राकृत तीन प्रकार की होती है-(१) जिसमें संस्कृत के समान शब्दों का प्रयोग हो, (२) संस्कृत से विकृत शब्दों का प्रयोग हो, और (३) जिसमें देशी भाषा के शब्दों का प्रयोग हो । दूसरे शब्दों में प्राकृत में तीन प्रकार के शब्दों का प्रयोग होता है-तत्सम, विभ्रष्ट या तद्भव और देशी । एवं जिसे पतंजलि ने अपभ्रंश कहा, भरत के अनुसार वही विभ्रष्ट है। भरत ने नाट्य-शास्त्र में सात भाषाओं का निर्देश किया है
मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यर्धमागधी। बालीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः॥
नाट्य० १७. ४६ इन सात भाषाओं के अतिरिक्त उन्होंने कुछ विभाषाओं का भी निर्देश किया है
शकाराभीर चांडाल शबर द्रमिलान्ध्रजाः। (शवराभीर चांडाल सचर द्रविडोद्रजाः) हीना वनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृताः ॥
__नाट्य० १७. ५० आगे चलकर इन विभाषाओं का स्थान-निर्देश करते हुए भरत ने बताया है
हिमवत्सिन्धुसौवीरान ये जनाः समुपाश्रिताः। उकारबहुलां तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत् ॥
नाट्य० १७. ६२ उत्तरकालीन लेखकों ने अपभ्रंश को उकार-बहुला माना है, अतः भरत के उपरिलिखित निर्देश से स्पष्ट होता है कि उनके समय यद्यपि अपभ्रंश नाम की कोई भाषा विकसित न थी, तथापि बीज रूप में वह हिमवत् (हिम-प्रदेश ), सिन्धु और सौवीर में वर्तमान थी।
भरत के भाषा-सम्बन्धी निर्देशों से यही प्रतीत होता है कि उनके समय संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत का प्रचार था । प्राकृत को भाषा कहा जाता था और भिन्न-भिन्न देशों के अनुसार उसे सात प्रकार की माना जाता था। इनके अतिरिक्त शकाराभीर आदि कुछ विभाषाएँ भी थीं। अभिनवगुप्त अपनी विवृति में भाषा और विभाषा का भेद स्पष्ट करते हुए कहते हैं
"भाषा संस्कृतापभ्रंशः, भाषापभ्रंशस्तु विभाषा सा तत्तद्देश एव गह वरवासिनां प्राकृतवासिनां च, एता एव नाट्ये तु।"
भरत नाट्य-शास्त्र, पृ० ३७६