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* श्रो३म् *
पहला अध्याय
अपभ्रंश विषयक निर्देश
अपभ्रंश शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख हमें पतंजलि ( ई० पू० दूसरी शती ) से कुछ शताब्दी पूर्व मिलता है । 'वाक्यपदीयम्' के रचयिता भर्तृहरि ने महाभाष्यकार के पूर्ववर्ती ' संग्रहकार' व्याडि नामक आचार्य के मत का उल्लेख करते हुए अपभ्रंश शब्द का निर्देश किया है' ।
अपभ्रंश शब्द का उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में भी मिलता है
एकस्यैव शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः । तद् यथा गौरित्यस्य गावी, गोरणी, गोता, गोपोतालिकेत्येवमादयोऽपभ्रंशाः ।
म. भा. १.१.१.
इन शब्दों में से अनेक शब्द भिन्न-भिन्न प्राकृतों में मिलते हैं । प्राकृत भाषा के व्याकरणकार चंड और हेमचन्द्र ने अपने-अपने व्याकरणों में उक्त रूपों में से कुछ प्राकृत के सामान्य रूप स्वीकार किये हैं । जैसे
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"गोर्गाविः", चंड- प्राकृत लक्षरण २.१६
“गोरणादयः गोः, गोरणी, गावी, गावः, गावीनो”, हेमचन्द्र – प्राकृत व्याकरण, ८. २. १७४
इससे प्रतीत होता है कि पतंजलि और उनके पूर्व के आचार्य उन सब शब्दों को अपभ्रंश समझते थे, जो शिष्ट-संमत संस्कृत भाषा से विकृत या भ्रष्ट होते थे ।
भरत अपने नाट्य-शास्त्र में संस्कृत के अनन्तर प्राकृत पाठ्य का निर्देश करते हुए कहते हैं-
१.
" शब्द संस्कार हीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षिते । तमपभ्रंशमिच्छन्ति विशिष्टार्थं निवेशिनम् ॥
वार्तिक — शब्दप्रकृतिरपभ्रंशः इति संग्रहकारो नाप्रकृतिरपभ्रंशः स्वतंत्रः कश्चिद्विद्यते । सर्वस्यैव हि साधुरेवापभ्रंशस्य प्रकृतिः । प्रसिद्धेस्तु रूढितामापाद्यमाना स्वातन्त्र्यमेव केचिदपभ्रंशा लभन्ते । तत्र गौरिति प्रयोक्तव्ये अशक्त्या प्रमादिभिर्वा गाम्यादयस्तत्प्रकृतयोपभ्रंशाः प्रयुज्यन्ते ।"
भर्तृहरि - वाक्यपदीयम्, प्रथमकाण्ड, कारिका १४८, लाहौर संस्करण सं०/ पं० चारुदेव शास्त्री
नामवरसिंह - हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, १९५२ ई० पू० २-३ से उद्धृत |