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अनेकान्त
[वर्ष१, किरण किया और औपनिषद तत्त्वोंका जामा पहनाकर अने- वाले जगतमें उसकी कद्र पुरानी कबसे अधिक नहीं कान्तदृष्टिमेंसे विशिष्टाद्वैतवाद खड़ा करके अनेकान्त- होगी। अनेकान्तदृष्टि और उसकी आधारभूत अहिंसा दृष्टिकी ओर आकर्षित जनताको वेदान्तमार्ग पर स्थिर ये दोनों नत्त्व महानसे महान हैं, उनका प्रभाव तथा रक्खा । पुष्टिमार्गके पुरस्कर्ता वल्लभजो दक्षिण हिंदुस्तान प्रतिष्ठा जमानेमें जैनसंप्रदायका बड़ा भारी हिस्सा भी में हुए उनके शुद्धाद्वैत-विषयक सब तत्त्व हैं तो औपनि- है पर इस बोसवीं सदीके विषम राष्ट्रीय तथा सामापदिक पर उनकी सारी विचारसरणी अनेकान्तदृष्टिका जिक जीवनमें उन तत्त्वोंसे यदि कोई खास फायदा न नया वेदान्तीय स्वांग है। इधर उत्तर और पश्चिम हिंदु- पहुँचे तो मंदिर-मठ और उपाश्रयोंमें हजारों पंडितोंके स्तानमें जो दूसरे विद्वानोंके साथ श्वेतांबरीय महान द्वारा चिल्लाहट मचाये जाने पर भी उन्हें कोई पूछेगा विद्वानोंका खंडनमंडन-विषयक द्वन्द्व हुआ उसके फल- नहीं, यह निःसंशय बात है । जैन लिंगधारी सैकड़ों स्वरूप अनेकान्तवादका असर जनतामें फैला और धर्मगर और सैकड़ों पंडित अनेकान्तके बालकी खाल सांप्रदायिक ढंगसे अनेकान्तवादका विरोध करनेवालेभी दिनरात निकालते रहते हैं और अहिंसाकी सूक्ष्म चर्चामें जानते अनजानते अनेकान्तदृष्टिको अपनाने लगे। इस खून सुखाते तथा सिर तक फोड़ा करते हैं। तथापि तरह वादरूपमें अनेकान्तदृष्टिआज तक जैनोंकी ही बनी लोग अपनी स्थितिके समाधान के लिए उनके पास नहीं हुई है, तथापि उसका असर किसी न किसी रूपमें- फटकते । कोई जवान उनके पास पहुंच भी जाता है तो अहिंसाकी तरह विकृत या अर्धविकृत रूपमें-हिन्दु- वह तुरन्त उनसे पूछ बैठता है कि 'आपके पास जब स्तानके हर एक भागमें फैला हुआ है । इसका सबूत समाधानकारी अनेकान्तदृष्टि और अहिंसा तत्त्व मौजूद सब भागोंके साहित्यमेंसे मिल सकता है। हैं तब आप लोग आपसमें ही गैरोंकी तरह बात बातमें व्यवहार में अनेकान्तका उपयोग न क्यों टकराते हैं ? मंदिरके लिए, तीर्थके लिए, धार्मिक
प्रथाओंके लिए, सामाजिक रीतिरिवाजोंके लिए-यहाँ होने का नतीजा तक कि वेश रखना, कैसा रखना, हाथमें क्या पकड़ना, जिस समय राजकीय उलट फेरका अनिष्ट परि- कैसे पकड़ना इत्यादि बालसुलभ बातोंके लिए श्राप णाम स्थायी रूपसे ध्यानमें आया न था, सामाजिक लोग क्यों आपसमें लड़ते हैं ? क्या आपका अनेकान्तबुराइयाँ आजकी तरह असह्यरूपमें खटकती न थीं, वाद ऐसे विषयोमें कोई मार्ग निकाल नहीं सकता ?
औद्योगिक और खेतीकी स्थिति आजके जैसी अस्त- क्या आपके अनेकान्तवादमें और अहिंसातत्त्वमें प्रिविव्यस्त हुई न थी, समझपूर्वक या बिना समझे लोग काउन्सिल, हाईकोर्ट अथवा मामूली अदालत जितनी एक तरहसे अपनी स्थितिमें सन्तुष्टप्राय थे और असं- भी समाधानकारक शक्ति नहीं है? क्या आपकी हिंसा तोषका दावानल आजकी तरह व्याप्त न था, उस समय अपनी सूक्ष्मचर्चा के लिए मारामारी करने और अहिंसाप्राध्यात्मिकसाधनामेंसे आविर्भत अनेकान्तदृष्टि कंवल की अपेक्षा रखनेको अनुचित नहीं समझती? क्या दार्शनिक प्रदेशमें रही और सिर्फ चर्चा तथा वादवि- हमारी राजकीय तथा सामाजिक उलझनोंको सुलझाने वादका विषय बनकर जीवनसे अलग रह कर भी का सामध्ये आपके इन दोनों तत्त्वोंमें नहीं है ? यदि उसने अपना अस्तित्व कायम रक्खा तथा कुछ प्रतिष्ठा इन सब प्रश्नोंका अच्छा समाधानकारक उत्तर आप भी पाई, वह सब उस समयके योग्य था। परन्तु आज अमली सौरसे 'हाँ'में नहीं देसकते तो आपके पास भाकर स्थिति बिलकुल बदल गई है। दुनियाके किसी भी धर्मका हम क्या करेंगे? हमारे जीवन में तो पद पद पर अनेक तत्व कैसा ही गंभीर क्यों न हो पर अब वह यदि उस कठिनाइयाँ आती रहती हैं उन्हें हल किये बिना यदि धर्मकी संस्थानों तक या उसके पंडितों तथाधर्मगुरुओंके हम हाथमें पोथियाँ लेकर कथंचित् एकानेक, कथंचित् प्रवचनों तक ही परिमित रहेगातोइस वैज्ञानिक प्रभाव- भेदाभेद और कथंचित् नित्यानित्यके खाली नारेलगाया