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अनेकान्त
अनेकान्त साहित्यका विकास भगवान महावीरने अनेकान्त दृष्टिको पहले अपने जीवन में उतारा था और इसके बाद ही दूसरोंका उसका उपदेश दिया था । इसलिये अनेकान्तदृष्टिकी स्थापना और प्रचारके निमित्त उनके पास काफी अनुभवबल और तपोबल था । अत एव उनके मूल उपदेश में से जो कुछ प्राचीन अवशेष आजकल पाये जाते हैं उन आगमग्रंथोंमें हम अनेकान्त दृटिको स्पष्ट रूपसे पाते हैं सही, पर उसमें तर्कवाद या खंडनमंडनका वह जटिल जाल नहीं पाते जो कि पिछले साहित्य में देख पड़ता है । हमें उन श्रगमग्रन्थोंमें अनेकान्तदृष्टिका सरल स्वरूप और संक्षिप्र विभागही नजर पड़ता है। परन्तु भगवान के बाद जब उनकी दृष्टि पर संप्रदाय क़ायम हुआ और उसका अनुगामी समाज स्थिर हुआ तथा बढ़ने लगा, तब चारों श्रोरसे अनेकान्तदृष्टि पर हमले होने लगे । महावीरके अनुगामी श्राचार्योंमें, त्याग और प्रज्ञा होने परभी, महावीर जैसा स्पष्ट जीवनका अनुभव और तप न था । इसलिए उन्होंने उन हमलोंसे बचने के लिए नैयायिक गोतम और वात्स्यायन के कथनकी तरह वादकथाके उपरान्त जल्प और कहीं कहीं वितण्डाका भी
[ वर्ष १, किरण १
सूक्ष्म और जटिल चर्चा की है । शुरूमें जो साहित्य अनेकान्तदृष्टि के अवलंबन से निर्मित हुआ था उसके स्थान पर पिछला साहित्य, खास कर तार्किक साहित्य, मुख्यतया अनेकान्तदृष्टिका निरूपण तथा उसके ऊपर अन्य वादियोंके द्वारा किये गये आक्षेपोंका निराकरण करनेके लिये रचा गया। इस तरह संप्रदाय की रक्षा और प्रचारकी भावनामेंसे जो केवल अनेकांत-विषयक साहित्यका विकास हुआ है उसका वर्णन करने के लिये एक खासी जुदी पुस्तिका की जरूरत है, तथापि इतना तो यहाँ निर्देश कर देना ही चाहिए कि समन्तभद्र और सिद्धसेन, हरिभद्र और अकलंक विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र, अभयदेव और वादिदेवसर, तथा हेमचंद्र और यशोविजयजी जैसे प्रकाण्ड विचारकोंने जो जो अदृष्ट के बारेमें लिखा है वह भारतीय दर्शन साहित्य में बड़ा महत्व रखता है. और विचारकों को उनके ग्रंथों में से मनन करने योग्य बहुत कुछ सामग्री मिल सकती है ।
फलित वाद
श्रय लिया है । अनेकान्तदृटिका जो तत्त्व उनको विरासत में मिला था उसके संरक्षण के लिये उन्होंने जैसे बन पड़ा वैसे कभी बाद किया, कभी जल्प और कभी वितण्डा । परन्तु इसके साथही साथ उन्होंने
दृष्टिको निर्दोष स्थापित करके उसका विद्वानोंमें प्रचार भी करना चाहा और इस चाहजनित प्रयत्नसे उन्होंने अनेकान्तदृष्टि के अनेक ममको प्रकट किया और उनकी उपयोगिता स्थापित की। इस खंडन मंडन, स्थापन और प्रचारके करीब दो हजार वर्षों में महावीरके शिष्योंने सिर्फ अनेकान्तदृष्टि-विषयक इतना बड़ा प्रन्थसमूह बना डाला है कि उसका एक खासा पुस्तकालय बन सकता है । पूर्व-पश्चिम और दक्षिणउत्तर हिन्दुस्थानके सब भागों में सब समयों पर उत्पन्न होनेवाले अनेक छोटे बड़े और प्रचंड आचार्यों ने अनेक भाषाओं में केवल अनेकान्तदृष्टि तथा उसमें से फलित होनेवाले वादों पर दंडकारण्य से भी कहीं विस्तृत
दृष्टि तो एक मूल है उसके ऊपर से और उसके आश्रय पर विविध वादों तथा चर्चाश्रोंका शाखाप्रशाखाओं की तरह बहुत बड़ा विस्तार हुआ है । उसमें से मुख्य दो वाद यहाँ नोट किये जानेके योग्य हैंएक 'नयवाद' और दूसरा 'सप्तभंगीवाद' । अनेकान्तदृष्टिका आविर्भाव आध्यात्मिक साधना और दार्शनिक प्रदेशमें हुआ, इसलिए उसका उपयोग भी पहले पहल वहीं होना अनिवार्य था। भगवान के इर्द गिर्द और उनके अनुयायी आचार्यों के समीप जोजो विचारधाराएँ चल रही थीं उनका समन्वय करना अनेकान्तदृष्टिके लिए लाजिमी था । इसी प्राप्त कार्यमें से ' नयवाद' की सृष्टि हुई । यद्यपि किसी किसी नयके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उदाहरणोंमें भारतीय दर्शनके विकासके अनुसार विकास होता गया है तथादि दर्शनप्रदेशमें से उत्पन्न होनेवाले नयवादकी उदाहरणमाला आज तक दार्शनिक ही रही है। प्रत्येक नयकी व्याख्या और चर्चाका विकास हुआ है पर उसकी उदाहरणमाला तो दार्शनिक क्षेत्रके बाहर आई ही