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जैन दर्शन में मन की अपार शक्ति मानी है। वह भयंकर है, पौराणिक ब्रह्मास्त्र से भी बढ़कर भयंकर ! कर्म सिद्धान्त का एक विवेचन है कि आत्मा के साथ कर्म-बंध की क्या स्थिति है ? मात्र काययोग से मोहनीय जैसे कर्म का बंध उत्कृष्ट रूप में एक सागर की स्थिति का हो सकता है। वचन योग मिलते ही पच्चीस सागर की स्थिति का उत्कृष्ट बंध हो सकता है। घ्राणेन्द्रिय अर्थात् नासिका के मिलने पर पचास सागर, और चक्षु के मिलते ही सौ सागर की स्थिति बाँधने का सामर्थ्य हो जाता है। और जब असंज्ञी पंचेन्द्रिय की दशा में कान मिलते हैं, तो हजार सागर तक का बन्ध हो सकता है। अब देखिए, यदि मन मिल गया और उत्कृष्ट मोहनीय कर्म का बंध होने लगा तो वह लाख, करोड़, करोड़ों करोड़ सागर को पार कर जाता है। सत्तर कोटाकोटी सागरोपम का सर्वोत्कृष्ट मोहनीय कर्म 'मन' मिलने पर ही बाँधा जा सकता है। __यह है मन की अपार शक्ति ! इसलिए मन को खुला छोड़ने से पहले मनन करो कि कहीं वह आत्मा को किसी गहन गर्त में तो नहीं धकेल रहा है?
नियति को मानने से हर्ष और शोक का अन्तर्द्वन्द्व जीता जा सकता है । कार्य की सफलता का अभिमान और असफलता का दैन्य भी उससे हट सकता है। किन्तु एक जहरीली दवा की तरह उसका उपयोग बहुत सावधानी से करना चाहिए। नियति का गलत प्रयोग जीवन को निष्क्रिय, और पराश्रित बना देता है; अत: विकारों से निवृत्ति लाने में ही उसका उपयोग उचित है।
कौवा बड़ी तेजी के साथ पश्चिम से पूर्व की ओर उड़ता जा रहा था। एक कोयल ने देखा, तो सहसा पूछ ही बैठी-“चाचा ! कहाँ चल दिए ?" ___“पूरब को जा रहा हूँ। यहाँ के लोग अच्छे नहीं हैं, मेरा रहना दूभर हो गया
"क्यों ?" कोयल ने पूछा।
“यहाँ मेरे गाने पर सभी को ऐतराज है। यहाँ के लोग संगीत का कुछ भी मूल्य नहीं समझते।" अमर डायरी
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