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क्या सूर्य कीचड़ को सुखाकर कड़ा नहीं कर देता ? क्या वह मोम को मुलायम नहीं बना देता ? जिस प्रकार एक ही सूर्य परस्पर विरोधी दो काम करता है उसी प्रकार साधक भी अपने मन को परस्पर विरोधी दो रूपों में ढालता है-कठोर और कोमल ! अपने दुःख में कठोर, और दूसरे के दुःख में कोमल ।
पुराने संत एक कहानी सुनाते हैं—किसी गड़रिए को बकरियाँ चराते हुए मणि मिल गई। गड़रिया उस मणि को, जिसे वह चमकीला पत्थर समझे हुए था, उछालता हुआ संध्या समय घर आ रहा था कि एक बनिया मिल गया। वह बोला—ला यह पत्थर मुझे दे। गड़रिए ने एक रुपया माँगा। बनिये ने कहा-आठ आने, ले ले ! बढ़ता-बढ़ता चौदह आने तक आ गया। गड़रिए ने नहीं दिया । बनिये ने सोचा-आज नहीं तो कल देगा, नहीं तो और कहाँ जाएगा ! गड़रिया आगे चल पड़ा। कुछ ही दूर पर दूसरा बनिया मिला। उसने कहा-अरे यह पत्थर तो मुझे चाहिए। गड़रिये ने एक रुपया माँगा । बनिये ने एक के बदले दो दे दिए। पहले बनिये ने देखा तो गड़रिये को बनाते हुए कहा-तू तो लुट गया? मूर्ख कहीं का ! अरे वह तो 'मणि' थी। गड़रिये ने उत्तर दिया-मूर्ख मैं हूँ या तू ? तूने दो आने के लिए मणि गँवा दी। अब पछताने से क्या?
सोचो, मणि मिली । एक ने अज्ञान से गँवा दी, दूसरे ने लोभ से।
मानव-जीवन का महत्त्व जो नहीं जानते, वे अज्ञान गड़रिए हैं। जो जानकर भी विषय तृष्णा वश उसे गंवा रहे हैं, वे लोभी बनिये हैं।
भक्तियोग का एक सिद्धान्त है कि किसी भी वस्तु का उपयोग करने से पहले उसे विराट ईश्वर के चरणों में विनम्र भाव से अर्पित कर दिया जाय । जहाँ तक मैं समझता हूँ 'विराट ईश्वर' का अर्थ किसी विशेष सत्ताधारी ईश्वर से नहीं, बल्कि सर्व-साधारण विराट जनता जनार्दन से है।
अमर डायरी
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