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कि हार में भी जय का घोष क्षीण नहीं होने देना है। यदि किसी को संघर्षरत संसार में आगे बढ़ना है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह खिलाड़ी बने !
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भारतीय अध्यात्म दृष्टि बाहर के आवरणों तक ही आबद्ध हो जाने वाली दृष्टि नहीं है । वह एक पारदर्शी दिव्य दृष्टि है, जो देश-विदेश, जातपांत, स्पृश्यास्पृश्य, ऊँच-नीच, पाप-पुण्य आदि विरोधी द्वन्द्वों के आर-पार मानव हृदय की निर्मलता के दर्शन करती है । वह रावण में भी अन्दर गहराई में छिपे हुए राम को देख लेती है । मानव ही क्यों, भूतमात्र में भगवान का, एक दिव्य समानता का दर्शन अध्यात्म दृष्टि की विशेषता है, जिसकी तुलना इधर-उधर अन्यत्र कहीं हो नहीं सकती ।
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भगवान् महावीर ने कहा— साधक को मात्रज्ञ होना चाहिए। वह साधक ही क्या, जिसे मात्रा का, सीमा का कोई परिज्ञान न हो ! तप हो, त्याग हो, आचार हो, विचार हो, कुछ भी हो, निरन्तर लक्ष्य में रखो कि वह कितना होना चाहिए ! कितना, भूले कि सर्वनाश !
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वैद्य औषधि जानता है, किन्तु यदि वह औषधि ( दवा) की मात्रा नहीं जानता है तो वह रोगी को जीवन देगा या मरण ? मात्रा से इधर या उधर दिया गया अमृत भी विष हो जाता है। और ठीक मात्रा में दिया गया विष भी अमृत का काम करता है ।
इसी संदर्भ में साधक के लिए आचार्य उमास्वाति ने कहा है— 'शक्तितस्त्यागतपसी' अपनी शक्ति के अनुसार ही तप और त्याग अपनाना चाहिए । शक्ति के अनुसार ठीक मात्रा में तप और त्याग स्वीकार करने वाला तीर्थंकर होता है, अन्य नहीं ।
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सत्कर्म के लिए, गुरुजनों की ओर से आज्ञा की अपेक्षा, आशीर्वाद की अधिक जरूरत है । आज्ञा नहीं मिलती है, तो अनुज्ञा तो कभी-न-कभी मिलेगी
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अमर डायरी
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