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विकारों का सर्प मरा नहीं, वह एक बिल को बदल कर दूसरे बिल में घुस गया । तब तक निर्भय नहीं हो सकते। जैन साधना का लक्ष्य यही है कि उस सर्प को मारो। तुम्हें सर्प से खतरा है बिल से नहीं । सच्चा सो मेरा
मैं आपसे फिर कहता हूँ कि आप किसी भी पंथ में रहें, किसी भी गुरु की माला फेरें और किसी भी सम्प्रदाय के नियमों का पालन करें, किन्तु आप इन पन्थों और सम्प्रदायों की दम घोटने वाली दीवारों से अपनी गर्दन को जरा ऊपर उठाकर बाहर के स्वच्छ और उन्मुक्त वातावरण में भी साँस लें ।
यदि आपको अखण्ड सत्य का दर्शन करना है तो सम्प्रदाय और पंथ की उलझन से दिमाग को साफ करिए । दृष्टि पर आग्रह का जो चश्मा चढ़ा है उसे उतार कर आँख को साफ कीजिए। जरा सोचिए - जब सत्य को हिमालय से भी ऊँचा, और महासमुद्र से भी अधिक गहरा बताया गया हैं" गम्भीरतरं महासमुदाओ”
-प्रश्न व्याकरण
तो ऐसा सत्य पंथों और सम्प्रदायों की क्षुद्र दीवारों में किस प्रकार बन्द हो सकता है ।
भगवान् बुद्ध ने एक बार वृक्ष के सूखे पत्ते मुट्ठी में भरकर आनन्द से पूछा- आनन्द ! क्या इस वृक्ष के पत्ते इतने ही हैं ?
आनन्द नहीं भन्ते ! और भी हैं।
बुद्ध ने फिर मुठ्ठी भरी और फिर पूछा तो आनन्द ने वही उत्तर दिया – भन्ते ! और भी हैं।
बुद्ध ने कहा- आनन्द ! तुम ठीक समझे हो । इसी प्रकार समझो कि सत्य जितना मैंने बतलाया है, उतना ही नहीं है। इसके अतिरिक्त और भी है, और वह अनन्त है ।
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