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मुझे इस पर एक उदाहरण याद आता है— एक सज्जन को निमन्त्रण मिला कि अमुक दिन हमारे घर पर खाना खाने आना, वे सज्जन दो दिन पहले ही उसकी तैयारी में उपवास करने लगे । अब समय पर खाने को गए तो इतना डटकर खाया कि उठना भी मुश्किल हो गया, पेट को मालगोदाम की तरह खूब डटकर भर लिया। बड़ी मुश्किल से घर पहुँचे तो बाहर से ही पुत्रवधू को आवाज लगाई-अरी ! खटिया डाल दो, अब खड़ा नहीं रहा जाता । पुत्रवधू ने खटिया डालते हुए कहा- यह कोई खाना थोड़ा ही है, इसमें क्या शेखी है ? खाना तो मेरे पिताजी खाते थे, सो जहाँ खाना खाते वहीं पर जम जाते, खटिया में डाल कर उन्हें घर पर लाते ।
हाँ, तो साहब ऐसा भोजन मनुष्यों को खाता है, भोजन से उनका माँस जरूर बढ़ता है, किन्तु आयु और बल नहीं बढ़ता, उलटा भोजन उनको खाता है । महात्मा बुद्ध ने कहा है
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“ अधिक भोजन करने वाले बैल के समान होते हैं, भोजन से उनका माँस जरूर बढ़ता है किन्तु बुद्धि नहीं बढ़ती ।”
भोजन करना हो तो मनुष्य के ढंग से करना चाहिए, स्वाद में बर्बाद नहीं होना चाहिए । भोजन का उद्देश्य है- आयु, बल, तेज और बुद्धि को कायम रखना और बढ़ाना । वह भोजन जब सिर्फ पेट को मालगोदाम की तरह भरना ही हो जाता है, तब वह आदमी को खाता है, अनेक बीमारियों को जन्म देता है, स्वास्थ्य, आयुष्य और ओज का नाश करने वाला होता है ।
इसीलिए मनुस्मृति में कहा है
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" अनारोग्य मनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनात्"
“ अति भोजन से आयुष्य, आरोग्य, और स्वर्ग भी हाथ से निकल जाता है ।” इसलिए भोजन को खाने का ढंग सीखना चाहिए। भगवान महावीर ने बार-बार कहा है
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अमर डायरी
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अप्पभासी मियासणे, अप्पपिण्डासी पाणासी । " कम बोले, कम खाए, कम खाना, कम पीना । ”
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