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खिल उठते हैं। शिष्य के प्रसुप्त मानव को गुरु जागृत करता है, चलना उसका अपना काम है। __ आगम-वाङ्मय का गम्भीरता से परिशीलन करने वाले मनीषी इस तथ्य को भली-भाँति जानते हैं कि परम प्रभु महावीर प्रत्येक साधक को एक ही मूलमंत्र देते हैं, कि “जहा सुहं देवाणुपिया मा पडिबंधं करेह देव बल्लभ मनुष्य ! जिसमें तुझे सुख हो, जिसमें तुझे शान्ति हो, उसी साधना में तू रम जा। परन्तु एक शर्त जरूर है,-"जिस कल्याण-पथ पर चलने का तू निश्चय कर चुका है, उस पर चलने में विलम्ब मत कर, प्रमाद न कर।" ___ इसका तात्पर्य इतना ही है, कि जैन धर्म की साधना के मूल में किसी प्रकार का बलप्रयोग नहीं है, बलात्कार से यहाँ साधना नहीं कराई जाती है। साधक अपने आप में स्वतन्त्र है । उस पर किसी प्रकार का आग्रह और दबाव नहीं है। भय और प्रलोभन को भी यहाँ अवकाश नहीं है। सहज-भाव से जो हो सके, वही अच्छी साधना है। आत्मकल्याण की भावना लेकर आने वाले साधकों में वे भी थे जो अपने जीवन की सन्ध्या में लड़खड़ाते चल रहे थे, वे भी थे, जो अपने जीवन के वसन्त में अठखेली कर चल रहे थे, और वे भी थे जो अपने गुलाबी जीवन में अभी प्रवेश ही कर पाए थे। किन्तु भगवान् ने सबको इच्छा-योग की ही देशना दी-"जहा सुहं देवाणुप्पियाजितना चल सकते हो चलो, बढ़ सकते हो, बढ़ो। __ अतिमुक्त कुमार आया, तो कहा-आ तू भी चल । मेषकुमार आया, तो कहा—आ और चला चल । इन्द्रभूति आया और हरिकेशी आया-सबको बढ़े चलो की अमृतमयी प्रेरणा दी। चन्दनबाला आई तो उसका भी स्वागत । राह सबकी एक है, परन्तु गति में सबके अन्तर है। कोई तीव्र गति से चला, कोई मन्द गति से। गति सब में हो । मन्दता और तीव्रता शक्ति पर आधारित है, यही इच्छायोग है, यही इच्छा-धर्म है, यही सहज-योग की साधना है। अमर डायरी
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