Book Title: Amar Diary
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 173
________________ गाथापति आनन्द आया। कहा-भंते ! श्रमण बन सकने की क्षमता मुझ में नहीं है । महाप्रभु ने अमृतमयी वाणी में कहा-"जहा सुहं ।" श्रमण न सही, . श्रावक ही बनो। सम्राट् श्रेणिक आया। कहा-भंते ! मैं श्रावक भी नहीं बन सकता। यहाँ पर भी वही इच्छा-योग आया-“जहा सुहं ।श्रावक नहीं बन सकते, तो सम्यग्दृष्टि ही बनो। जितनी शक्ति है, उतना ही चलो। महामेघ बरसता है और जितना पात्र होता है, वैसा और उतना ही जल प्राप्त हो जाता है। __ जैन धर्म एक विशाल और विराट धर्म है। यह मनुष्य की आत्मा को साथ लेकर चलता है। यह किसी पर बलात्कार नहीं करता । साधना में मुख्य तत्व सहज भाव और अन्त:करण की स्फूर्ति है । अपनी इच्छा से और स्वत: स्फूर्ति से जो धर्म किया जाता है, वस्तुत: वही सच्चा धर्म है, शेष धर्माभास मात्र होता है। जैन धर्म में किसी भी साधक से यह नहीं पूछा जाता कि तूने कितना किया है। वहाँ तो यही पूछा जाता है, कि तूने कैसे किया है ? सामायिक, पौषध या नवकारसी करते समय तू शुभ संकल्पों में, शुद्ध भावों के प्रवाह में बहता रहा है या नहीं? यदि तेरे अन्तर में शान्ति नहीं रही, तो वह क्रिया केवल क्लेश उत्पन्न करेगी-उससे धर्म नहीं होगा। क्योंकि “यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः । __ जैन धर्म की साधना का दूसरा पहलू यह है कि मनुष्य अपनी शक्ति का गोपन कभी न करे । जितनी शक्ति है, उसको छुपाने की चेष्टा मत करो। शक्ति का दुरुपयोग करना यदि पाप है, तो उसका उपभोग न करना भी पापों का पाप है-महापाप है। अपनी शक्ति के अनुरूप जप, तप और त्याग जितना कर सकते हो, अवश्य ही करो। एक आचार्य के शब्दों में हमें यह कहना ही होगा "जं सक्कइ तं कीरइ जंच ने सक्कइ तस्स सद्दहणं । सदहमाणो जीवो, पावइ अजरामरं ठाणं ।" 164 अमर डायरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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