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सवीरिए परायण, अवीरिए पराजयइ ।
- भगवती
वीर्यवान विजयी होता है, निर्वीय परास्त होता है । वह जीवन में लड़खड़ा जाता है, संघर्षों और तूफानों में उखड़ जाता है । कठोपनिषद् में यही बात कही है
नायमात्मा बल हीनेन लभ्यः ।
जो शरीर निर्बल और असमर्थ है, उसे आत्मा के दर्शन नहीं हो सकते । इसलिए भारत के प्रत्येक दर्शन, और प्रत्येक विचारक ने ब्रह्मचर्य को आवश्यक बताया है— जिन्दगी जीने के लिए भी और जिन्दगी सफल बनाने के लिए भी । विकारों का रीछ
प्रारम्भ में मन विकारों की ओर दौड़ता है, उनकी मोहकता और सरसता के लिए, किन्तु बाद में विकारों के चंगुल में इस प्रकार फँस जाता है कि उन्हें छोड़ना चाहते हुए भी नहीं छोड़ता। ऐसा लगता है कि अब विकार, अहंकार या वासना उस पर छा गए हैं।
किसी सामान्य व्यक्ति को हजारों आदमियों की सभा में फूलमाला पहना कर कुर्सी पर बिठाया जाता है, तो प्रारम्भ में लगता है वह उस सन्मान से दबकर विनम्र हो रहा है, किन्तु बाद में होता क्या है कि कुर्सी का अहंकार उस पर छा जाता है, पहले वह कुर्सी पर बैठा था, अब कुर्सी उस पर बैठ गई है।
जब विकार सामने आते हैं तो मन में एक प्रलोभन व आकर्षण जगता है, वह उस ओर बढ़ता है, और धीरे-धीरे विकारों से इस प्रकार बँध जाता है कि दुःख पाते हुए भी उनसे मुक्त नहीं हो सकता, तब वे विकार उसे नहीं छोड़ते ।
एक पुरानी कथा है— एक गुरु और एक शिष्य प्रातः काल नदी में स्नान करने को गए । अचानक गुरु की दृष्टि एक काली चीज पर गई, जो नदी में बहती जा रही थी । गुरु ने शिष्य से कहा- देख, वह किसी का कम्बल बहा जा रहा है, उसे पकड़ ले ।
अमर डायरी
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