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"जिस सत्कर्म को तुम कर सकते हो, उसे अवश्य करो। जिसको करने की शक्ति न हो, उस पर श्रद्धा रखो, करने की भावना रखो। अपनी शक्ति के तोल के मोल को कभी न भूलो।" ___ आचारांग में साधक को लक्ष्य करके कहा गया है-"जाए सद्धाए तिक्खंता तमेव अणुपालिया। साधको ! तुम साधना के जिस महामार्ग पर आ पहुँचे हो, अपनी इच्छा से,-उसका वफादारी के साथ पालन करो। श्रावक हो, तो श्रावक धर्म का और श्रमण हो, तो श्रमण धर्म का श्रद्धा और निष्ठा के साथ पालन करो। साधना के पथ पर शून्य मन से कभी मत चलो। सदा मन को तेजस्वी रखो। स्फूर्ति और उत्साह रखो। कितना चले हो, इसकी ओर ध्यान मत दो। देखना यह है, कि कैसा चले हैं। चित्रमुनि ने चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त को कहा था—“राजन्, तुम श्रमणत्व धारण नहीं कर सकते, कोई चिन्ता की बात नहीं । तुम श्रावक भी नहीं बन सकते, न सही। परन्तु इतना तो करो कि अनार्य कर्म मत करो। करना हो, तो आर्य कर्म ही करो।" ___इससे बढ़कर इच्छा-योग और क्या होगा? इससे अधिक सरल और सहज साधना और क्या होगी? जैन धर्म का यह इच्छा-योग मानव-समाज के कल्याण के लिए सदा द्वार खोले खड़ा है। इस में प्रवेश करने के लिए धन, वैभव और प्रभुत्व की आवश्यकता नहीं है । देश, जाति और कुल का बन्धन भी नहीं है। आवश्यकता है, केवल अपने सोए हुए मन को जगाने की, और अपनी शक्ति को तोल लेने की। ___आज के अशान्त मानव को जब कभी शान्ति और सुख की जरूरत होगी, तो उसे इस सहज धर्म इच्छायोग की साधना करनी ही होगी।
संस्कृति का स्वरूप आज चारों ओर संस्कृति की चर्चा है । सभा में, सम्मेलन में और उत्सव में, सर्वत्र ही आज संस्कृति का बोल-बाला है। सामान्य शिक्षित व्यक्ति से लेकर अमर डायरी
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