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यही स्थिति आज पूरे समाज की है, जड़ का महत्व बढ़ रहा है, चेतन का महत्व कम हो रहा है। यूँ हमारे परिपार्श्व में दोनों प्रकार के परिग्रह हैं, चेतन और जड़ ! किन्तु यहाँ जड़ का सवाल आता है, हम चेतन को ठुकरा देते हैं, - पिता का सम्बन्ध पैसे के सामने दब जाता है। मैत्री और रिश्तेदारी स्वार्थ से टकराने पर चूर-चूर हो जाती है । भाई-भाई में विग्रह होते हैं, पत्नी से सम्बन्ध विच्छेद होते हैं— सिर्फ जड़ की ममता के कारण !
माता
जीवन की इस विलोम गति को बदलना होगा, जड़ परिग्रह से वैराग्य लेकर चेतन को महत्व देना होगा। हाँ, यूँ तो आखिर चेतन-परिग्रह से भी मुक्त होना है, लेकिन उससे पहली भूमिका है— जड़ की ममता से मुक्त होना । लंका कितनी दूर है.....
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एक आचार्य ने राम के जीवन का वर्णन करते हुए कहा है- रावण सीता को चुराकर ले गया और राम उसकी खोज करते-करते वानरवंशी राजा सुग्रीव से मिले, तो राम को मालूम हुआ कि रावण, सीता को चुराकर लंका में ले गया है । राम ने वानर सेना से पूछा लंका यहाँ से कितनी दूर है ?
सेना में जामवन्त नाम का एक वृद्ध सेनापति था, शरीर से वह जर्जरित था, किन्तु उसके प्राणों में जीवट था, आश्चर्य की मुद्रा में प्रश्न को दोहराते हुए उसने कहा – क्या पूछा आपने ? लंका कितनी दूर है ? और फिर हँसते हुए उत्तर दिया - लंका इतनी दूर है कि एक-दो वर्ष या सौ-पचास वर्ष तो क्या, हजार-हजार वर्ष भी पूरे हो जाएँ तब भी वहाँ तक पहुँच नहीं सकते ! और लंका इतनी निकट भी है कि एक कदम उठाया और दूसरा कदम धरा कि लंका के सिंह द्वार पर !
राम कुछ समझ नहीं पाए, उन्होंने फिर पूछा कि तुम्हारी इस पहेली का गूढार्थ क्या है ?
अमर डायरी
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