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हाँ, तो वह अनन्त सत्य ग्रन्थ और पंथ की घेरेबन्दी में कैसे समा सकता है ? । सत्य के जिज्ञासु का नारा
“यन्मम तत् सत्यम्" (जो मेरा है, मेरे गुरु का है वही सत्य है)—यह कभी नहीं होता। सत्य की । उपासना का स्वर तो यही होना चाहिए।
“यद् सत्यं तन्मम (जो सत्य है, वही मेरा है) यही निर्मल दृष्टि हमें सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करा सकती है। एक को जाने सब जाने जैन दर्शन ने एक बात कही है- .
- “जे एंग जाणइ से सव्वं जाणइ" जिसने एक को जाना उसने सबको जाना, जिसने एक का दर्शन कर लिया उसने समूचे विश्व का दर्शन कर लिया। इस सम्बन्ध में वैदिक परम्परा के एक ऋषि ने बहुत ही गम्भीर प्रश्न किया है
“कस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति?" 'किस एक को जानने पर यह सब जाना जा सकता है?' इस प्रश्न का समाधान भी वहीं दे दिया गया है
___ "आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति" 'एक आत्मा को जान लेने पर यह सब जाना जा सकता है। आत्मा वह परम गुह्य तत्व है जिसको उपननिषद् नेअदृष्टो दृष्टा
-इ. उपनिषद् ३/७/१३ (अदृश्य रहकर देखने वाला) कहा है ।
जैन दर्शन की भाषा में वहअमर डायरी
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