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जीवन भर यूँ ही परिस्थितियों का रोना रोते-रोते एक दिन यहाँ से कूच कर जाएँगे। वास्तव में मनुष्य अपनी बुजदिली और अकर्मण्यता को छिपाकर दुनिया की नजरों से, और अपने आपकी नजरों से बचने के लिए उस पर परिस्थितियों का लबादा डालने की चेष्टा करता है। __आप सही मानिए अनुकूल प्रवाह, वातावरण और परिस्थितियों का इन्तजार तो मुर्दे किया करते हैं; जीवित या जानदार आदमी नहीं। बलिष्ठ और जीवट वाला नाविक धार या बहाव के विपरीत भी अपनी नाव को खेता हुआ चला जाता है। वह संसार में भेड़-बकरियों की गिनती में नहीं किन्तु मनुष्यों की गिनती में आता है। भगवान् महावीर ने कहा है___अणुसोओ य संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारे।"
-दशवैकालिक प्रवाह के पीछे-पीछे तो संसार चलता ही है। किन्तु सच्चा वीर वह है, जो प्रतिस्रोत में चले, जिधर उसकी गति होती है, उसी तरफ किनारा मिल जाता है जिधर उसके चरण बढ़ते हैं, उसी ओर मार्ग बन जाता है।
__ "बढ़ जाते जब चरण, स्वयं पथ बन जाता है
चल पड़ती सब नाव किनारा मिल जाता है।" वास्तव में जिन्दा मनुष्य की यही निशानी है। भूल सिद्धान्त न बने । कभी-कभी मन में एक बात आती रहती है कि गलती होना, गलत विचार स्वीकार कर लेना आसान है, किन्तु धीरे-धीरे वह गलती स्वभाव या आदत बन जाती है, और वह गलत विचार सिद्धान्त बन जाता है, फिर वह छूटना बड़ा मुश्किल हो जाता है, और उसका बुरा परिणाम व्यक्ति व समाज को भुगतना ही पड़ता है।
एक दिन एक भाई (श्रावक) के यहाँ मुझे जाना पड़ा, वह बीमार था, और यूँ मर-मर कर जी रहा था। उसकी पत्नी ने कहा इन्हें साँस की बीमारी है, मगर 146
अमर डायरी
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